2012 में चार राज्यों में हारी कांग्रेस
कांग्रेस को पहला बड़ा झटका 2012 में तब लगा जब यूपी में 21 सांसद वाली ये पार्टी महज 28 सीटें जीत सकी। पंजाब में कांग्रेस जीत की स्वाभाविक दावेदार बताई जा रही थी लेकिन यहां अकाली-भाजपा गठबंधन सबको चौंकाते हुए दोबारा सरकार बनाने में कामयाब रहा। हार की एक बड़ी वजह राहुल गांधी द्वारा अमरिंदर सिंह को इशारों-इशारों में सीएम कैंडिडेट घोषित करने को भी बताया गया और पार्टी 117 विधानसभा वाले इस राज्य में महज 46 सीटें जीतकर फिर एक बार विपक्ष में बैठने को मजबूर हुई। गोवा में भी दिगंबर कामत वाली कांग्रेस सरकार को हार का सामना करना पड़ा। उत्तराखंड में पार्टी को बीजेपी से बहुत नजदीकी मुकाबले में जीत मिली तो मणिपुर में जरूर कांग्रेस सरकार बनाने में कामयाब रही। इसी साल के अंत में गुजरात में एक बार फिर कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी जबकि हिमाचल में वो जीत हासिल करने में कामयाब रही।
हार के बार हार, लगातार
2013 में कांग्रेस को त्रिपुरा, नगालैंड, दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में कारारी हार मिली। मिजोरम और मेघालय को छोड़ दिया जाए तो उसके लिए खुशखबरी महज कर्नाटक से आई हालांकि यहां भी पार्टी की जीत के लिए कांग्रेस को कम और येदुरप्पा प्रकरण के चलते हुई बीजेपी की बदनामी को ज्यादा बड़ी वजह माना गया। 2014 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत की उम्मीद तो किसी ने नहीं की थी लेकिन वो महज 44 सीटों तक सिमट जाएगी ऐसी कल्पना भी उसके धुर विरोधियों को नहीं थी। इसी साल पार्टी ने हरियाणा और महाराष्ट्र में सत्ता गंवा दी। झारखंड, जम्मू-कश्मीर में भी उसकी करारी हार हुई। 2015 में बिहार में महागठबंधन में शामिल होकर उसने जीत का स्वाद चखा लेकिन इसी साल उसे असली झटका दिल्ली में मिला जहां उसे एक भी सीट नहीं मिली। 2016 भी कांग्रेस के लिए कोई अच्छी खबर लेकर नहीं आया। इस साल उसके हाथ से असम जैसा बड़ा राज्य चला गया। केरल में भी उसकी गठबंधन सरकार हार गई जबकि पश्चिम बंगाल में लेफ्ट के साथ चुनाव लड़ने के बावजूद उसका सूपड़ा साफ हो गया। हालांकि पुड्डुचेरी में उसकी सरकार बनी।
आगे भी नहीं दिखती उम्मीद की किरण
इस साल के अंत में गुजरात और हिमाचल प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं। पार्टी जिस तरह विश्वविद्यालयों से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में हारती चली जा रही है और अपनी किसी भी हार से कोई सबक सीखने को तैयार नहीं है, उसे देखते हुए इन राज्यों में भी उसकी जीत पर दांव लगाना रिस्क लेने जैसा है। पार्टी में राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाने की मांग लगातार उठ रही है लेकिन सवाल ये है कि अध्यक्ष बनने के बाद राहुल ऐसा कौन सा कदम उठाएंगे जो वो अब नहीं उठा पा रहे हैं। राहुल का अध्यक्ष बनना अब सिर्फ एक तकनीकी प्रक्रिया भर है और आज कांग्रेस में उनकी मर्जी के बिना कुछ हो रहा है, इसपर कोई विश्वास नहीं करने वाला।
न लीडरशिप में करिश्मा, न रणनीति में नयापन
यूपी-चुनाव में राहुल और अखिलेश यादव के गठबंधन को मुंह की खानी पड़ी है। राहुल से ज्यादा अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी को चुनाव में नुकसान उठाना पड़ा है उसके बावजूद इन चुनावों में अखिलेश यादव एक लीडर के रूप में उभरकर सामने आए जो जनता से उसकी भाषा में बात करता है और विरोधियों (जिनमें खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सबसे ऊपर रहे) को उन्हीं के अंदाज में जवाब देना जानता है। जो मीडिया के तीखे सवालों से असहज नहीं होता और सार्वजनिक मौकों पर पूरे आत्मविश्वास के साथ भरा नजर आता है। राहुल गांधी में ऐसा कुछ नजर नहीं आया। आज भी उनके भाषण ठीक वैसे ही हैं जैसे पिछले विधानसभा चुनाव और लोकसभा चुनाव में थे। न तो वे जनता के सामने कोई विजन पेश कर पा रहे हैं और न ही कांग्रेस के ऊपर लगे गंभीर आरोपों का बचाव कर पा रहे हैं। ऐसे में उनकी लीडरशिप कांग्रेस को उसके सबसे बुरे दौर से कैसे बाहर निकालेगी इस सवाल का जवाब कांग्रेसी ही नहीं, बल्कि पूरा देश तलाश रहा है।