हाल ही में पांच राज्यों में चुनाव के नतीजे आने के बाद, कांग्रेस युवराज राहुल गांधी के खाते में एक और बड़ी हार दर्ज हो गई है। पंजाब को छोड़ दें तो उत्तरप्रदेश और उत्तराखंड में कांग्रेस को करारी हार का सामना करना पड़ा है। जबकि इन दोनों राज्यों पर राहुल गांधी का फोकस सबसे ज्यादा था। यही नहीं गोवा और मणिपुर में कांग्रेस ने बीजेपी से बेहतर प्रदर्शन जरूर किया लेकिन यहां भी कांग्रेस सरकार बनाने में नाकाम दिखाई दे रही है। ऐसे में राहुल गांधी के फेलियोर कार्ड में एक और बड़ी हार दर्ज हो गई है।
एक के बाद एक लगातार हार से कांग्रेस नेताओं का धैर्य भी जवाब देने लगा है और कल तक 10 जनपथ से जुड़े हर सवाल पर चुप्पी साध लेने वाले नेता अब दबे शब्दों में राहुल गांधी की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाने लगे हैं।
दरअसल राहुल गांधी को 2013 में कांग्रेस का उपाध्यक्ष बनाया गया था। ये वो समय था जब केंद्र में यूपीए की सरकार थी और देश के कई राज्यों में कांग्रेस सत्ता में थी लेकिन आज स्थिति ये है कि पार्टी के पास लोकसभा में मुख्य विपक्षी दल बनने लायक सांसद नहीं हैं और अधिकतर राज्यों में पार्टी सत्ता से बाहर हो चुकी है। राहुल भले ही कांग्रेस के उपाध्यक्ष हों लेकिन सोनिया गांधी बीमारी के चलते लंबे समय से राजनीति में सक्रिय नहीं हैं और पार्टी के सभी फैसले सीधे-सीधे राहुल गांधी द्वारा ही लिए जा रहे हैं इसलिए एक के बाद एक राज्यों में होती जा रही हार के लिए भी अब उन्हें ही जिम्मेदार ठहराया जाने लगा है।
2009 के लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस 2004 के मुकाबले और ज्यादा मजबूत होकर सामने आई तो उसका ज्यादातर श्रेय राहुल गांधी को ही दिया गया। खासकर उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 21 सांसद जीतकर आने को पूरी तरह राहुल गांधी की उपलब्धि बताकर पेश किया गया। इसके बाद मनमोहन के मंत्रिमंडल का जब भी विस्तार हुआ, पहला सवाल यही उठा कि क्या राहुल गांधी केंद्र में मंत्री बनेंगे। 2013 में तो खुद मनमोहन सिंह ने ये कहकर सबको चौंका दिया कि वो राहुल गांधी के नेतृत्व में काम करने को तैयार हैं। लेकिन तकरीबन यही वो समय था जब राहुल और कांग्रेस के माथे पर एक के बाद एक हार लिखे जाने का सिलसिला शुरू हुआ।
ऐसे में इस हार का ठीकरा अब राहुल गांधी के सिर पर फूटने लगा है। और सवाल ये भी है कि कांग्रेस की गिरती साख के लिए राहुल किस हद तक जिम्मेेदार हैं।
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