इंडस्ट्री से जुड़े एक्सपर्ट्स ने ऑफ द रिकॉर्ड कहा कि वायु सेना की अभी तक की अप्रोच की वजह से फिलहाल एक ही वेंडर निर्धारित मानकों को पूरा करता नजर आता है। इस वजह से फैसला लेने की प्रक्रिया में सुस्ती आई है। सिंगल वेंडर सिचुएशन की वजह से खरीद के लिए कंपनी के चुनाव की प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं। कोशिश की जाती है कि चुनाव करने के लिए कई वेंडर के विकल्प मौजूद हों।
मामले की जानकारी रखने वाले लोगों का कहना है कि वायु सेना ऑपरेशनल मकसद से नए फाइटर जेट्स की तलाश कर रही है। ऐसे में इस तलाश को सिर्फ स्वीडन या अमेरिका तक सीमित रखना वाजिब नहीं है। स्वीडन की कंपनी साब ग्रिपन जबकि अमेरिकी कंपनी लॉकहीड मार्टिन एफ-16 जेट्स बनाती है। एक्सपर्ट को यह बात भी हैरान करती है कि ग्रिपन और एफ-16, दोनों ही 2010 में वायु सेना के इवैल्युएशन प्रक्रिया में कामयाब नहीं हुए। वहीं, फ्रांस का मिराज 2000 भी वायु सेना के मापदंडों में फिट बैठता है।
राह में एक और अड़चन
फाइटर जेट्स के लिए ‘मेक इन इंडिया’ से जुड़े इस कार्यक्रम को शुरू करने से पहले रक्षा मंत्रालय को अपने स्ट्रैटिजिक पार्टनरशिप मॉडल (SP) पर भी आगे बढ़ना होगा। इस मॉडल के तहत वे गाइडलाइंस तय होनी हैं, जिनके आधार पर प्राइवेट सेक्टर की कंपनियां अहम सैन्य निर्माण कार्यक्रमों में हिस्सा लेंगी। प्राइवेट सेक्टर कंपनियों से लंबे वक्त के समझौतों और पब्लिक सेक्टर के डिफेंस यूनिट्स की भूमिका से जुड़े सवालों को हल करना भी एसपी मॉडल के समक्ष चुनौती है।































































