गुरमेहर आगे लिखती हैं-
वे कहते हैं कि मेरा सेंस ऑफ ह्यूमर ड्राई है लेकिन चुनिंदा दिनों में यह कारगर भी है. किताबें और कविताएं मुझे राहत देती हैं. मुझे किताबों का शौक है. मेरे घर की लाइब्रेरी किताबों से भरी पड़ी है और पिछले कुछ महीनों से मैं इसी फिक्र में हूं कि मां को उनके लैंप और तस्वीरें दूसरी जगह रखने के लिए मना लूं, ताकि मेरी किताबों के लिए शेल्फ में और जगह बन सके. मैं आदर्शवादी हूं. ऐथलीट हूं. शांति की समर्थक हूं. मैं आपकी उम्मीद के मुताबिक उग्र और युद्ध का विरोध करने वाली बेचारी नहीं हूं. मैं युद्ध इसलिए नहीं चाहती क्योंकि मुझे इसकी क़ीमत का अंदाज़ा है.
ये क़ीमत बहुत बड़ी है. मेरा भरोसा करिए, मैं बेहतर जानती हूं क्योंकि मैंने रोज़ाना इसकी क़ीमत चुकाई है. आज भी चुकाती हूं. इसकी कोई क़ीमत नहीं है. अगर होती तो आज कुछ लोग मुझसे इतनी नफ़रत न कर रहे होते. न्यूज़ चैनल चिल्लाते हुए पोल करा रहे थे, “गुरमेहर का दर्द सही है या ग़लत?” हमारी तक़लीफों का क्या मोल है? अगर 51% लोग सोचते हैं कि मैं ग़लत हूं तो मैं ज़रूर गलत होऊंगी. इस स्थिति में भगवान ही जानता है कि कौन मेरे दिमाग को दूषित कर रहा है.
पापा मेरे साथ नहीं हैं; वह पिछले 18 सालों से मेरे साथ नहीं है. 6 अगस्त, 1999 के बाद मेरे छोटे से शब्दकोश में कुछ नए शब्द जुड़ गए- मौत, पाकिस्तान और युद्ध. ज़ाहिर है, कुछ सालों तक मैं इनका छिपा हुआ मतलब भी नहीं समझ पाई थी. छिपा हुआ इसलिए कह रही हूं क्योंकि क्या किसी को भी इसका मतलब पता है? मैं अब भी इनका मतलब ढूंढने की कोशिश कर रही हूं.
मेरे पिता एक शहीद हैं लेकिन मैं उन्हें इस तरह नहीं जानती. मैं उन्हें उस शख्स के तौर पर जानती हूं जो कार्गो की बड़ी जैकेट पहनता था, जिसकी जेबें मिठाइयों से भरी होती थीं. मैं उस शख्स को जानती हूं जो मेरी नाक को हल्के से मरोड़ता था, जब मैं उसका माथा चूमती थी. मैं उस पिता को जानती हूं जिसने मुझे स्ट्रॉ से पीना सिखाया, जिसने मुझे च्यूइंगम दिलाया. मैं उस शख्स को जानती हूं जिसका कंधा मैं जोर से पकड़ लेती थी ताकि वो मुझे छोड़कर न चले जाएं. वो चले गए और फिर कभी वापस नहीं आए.
मेरे पिता शहीद हैं. मैं उनकी बेटी हूं.
लेकिन,
मैं आपके ‘शहीद की बेटी’ नहीं हूं.