ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड की ओर से तीन तलाक एवं बहुविवाह के संदर्भ में उच्चतम न्यायालय में दिए गए हलफनामे को लेकर देश की कुछ प्रमुख मुस्लिम महिला अधिकार कार्यकर्ताओं ने इस प्रमुख मुस्लिम निकाय पर निशाना साधते हुए रविवार (4 सितंबर) को कहा कि इसका रुख ‘गुमराह करने वाला’, ‘इस्लाम विरोधी’ और ‘महिला विरोधी’ है। उन्होंने एक साथ तीन तलाक और बहुविवाह पर रोक लगाने की मांग की और कहा कि अदालती दखल से महिलाओं को उनके वो अधिकार मिलने चाहिए जो शरीयत एवं कुरान में उनको दिए गए हैं।
भारतीय मुस्लिम महिला आंदोलन की संस्थापक नूरजहां सफिया नियाज ने कहा, ‘पर्सनल लॉ बोर्ड ने अदालत के समक्ष जो बातें कीं वो संविधान विरोधी, इस्लाम विरोधी और महिला विरोधी हैं। यह बहुत दुखद स्थिति है। हमारी मांग है कि देश की सबसे अदालत दखल दे और मुस्लिम महिलाओं को उनका हक दिलाए।’ इस्लामिक नारीवादी शीबा असलम फहमी का कहना है कि बोर्ड ने देश की सबसे बड़ी अदालत में जो पक्ष रखा है तो ‘झूठा और महिला विरोधी’ है। उन्होंने कहा, ‘पर्सनल लॉ बोर्ड ने जो हलफनामा दिया है उसमें अजीबो-गरीब तर्क दिए हैं। उसका पक्ष झूठा और महिलाओं के खिलाफ है। उसने महिलाओं को कमजोर के तौर पर पेश करने की कोशिश की है। महिलाएं सिर्फ अपना वो हक मांग रही हैं जो उनको शरीयत और कुरान ने दिए हैं।’
लेखिका और महिला अधिकार कार्यकर्ता नाइस हसन ने कहा, ‘बोर्ड का कहना है कि शरीयत में बदलाव नहीं किया जा सकता, जबकि ऐसा नहीं है। तारीख उठाकर देख लीजिए दुनिया के कई मुस्लिम मुल्कों में तलाक और बहुविवाद से जुड़े शरिया कानूनों में बदलाव हुए हैं। कानून में हालात के मुताबिक बदलाव किए जाते हैं। 1920 के दशक में तुर्की में कमाल अतातुर्क के जमाने में शरिया कानून में बदलाव किए गए थे। ऐसी बहुत सारी मिसालें मिलती हैं।’
नाइस हसन ने कहा, ‘जिस दौर में चार विवाह की इजाजत दी गई, उस वक्त के हालात कुछ और थे। आज के समय में जब लड़कों के मुकाबले लड़कियों की संख्या कम है तो फिर ये कैसे संभव है।…महिलाओं को उनका पूरा हक देने के लिए पर्सनल लॉ में बदलाव होना चाहिए।’ एक साथ तीन तलाक के खिलाफ अभियान चला रही सफिया नियाज ने कहा, ‘हम सामाजिक स्तर पर दबाव बनाने के लिए अपना अभियान जारी रखेंगे। हमने इसपर पहले ही 50 हजार महिलाओं के हस्ताक्षर लिए हैं और आगे ज्यादा से ज्यादा महिलाओं को इस मुहिम में जोड़ने की कोशिश करेंगे।’
पर्सनल लॉ बोर्ड ने शनिवार (3 सितंबर) को उच्चतम न्यायालय में तलाक के मामलों में मुस्लिम महिलाओं द्वारा कथित लैंगिक भेदभाव सहित कई मुद्दों को उठाने वाली याचिकाओं का विरोध करते हुए कहा कि सामाजिक सुधार के नाम पर किसी समुदाय के पर्सनल कानूनों को ‘फिर से नहीं लिखा’ जा सकता। बोर्ड ने शीर्ष अदालत में अपने जवाबी हलफनामे में कहा कि बहुविवाह, तीन बार तलाक (तलाक ए बिद्दत) और निकाह हलाला की मुस्लिम परंपराओं से संबंधित विवादित मुद्दे ‘विधायी नीति’ के मामले हैं और इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता।