प्रधानमंत्री चुनाव के दौरान नरेंद्र मोदी ने केरल में दलित और पिछड़े वर्ग की एक सभा को संबोधित करते हुए स्वंय को छुआछूत का शिकार बताया था। उन्होंने कहा कि, ‘अगला 10 वर्ष आपका होने जा रहा है।’ जिस पर वहाँ मौजूद जनता द्वारा उन्होने खूब वाहवाही भी बटोरी थी।
मोदी सरकार ने काफी हदतक अपना वादा निभाया भी। 2014-15 के बजट में दलितों और आदिवासियों के लिए बने दो फंड अनुसूचित जाति उप योजना और जनजातीय उप योजना के आंवटन में 25 फीसदी की वृद्धि की गई है। हालांकि, केंद्रीय मंत्रालयों द्वारा आंवटित राशि में से एक-तिहाई से अधिक 32,979 करोड़ रुपए खर्च नहीं किये गए।
पिछले वर्ष की तुलना में यह अव्ययित राशि में 250 फीसदी की वृद्धि हुई है। प्रधानमंत्री के रुप में मोदी के कार्यकाल के पहले वर्ष के दौरान अव्ययित राशि सबसे अधिक रही है और पिछले तीन वर्षों में (केवल इसी अवधि के लिए सरकरा के पास आंकड़े मौजूद हैं) अव्ययित राशि का सर्वोच्च प्रतिशत रहा है।
केन्द्रीय मंत्रालयों के लिए धन के प्रवाह (जनजातीय और अनुसूचित जाति उप योजना)
Source: Response to Right to Information requests
कैसे सरकारों ने इन विशेष कोष को कम प्रयुक्त किया है, इस पर लेख श्रृंखला के दूसरे भाग में इंडियास्पेंड ने उपेक्षा की कुछ कहानियों का पता लगाने की कोशिश की है। उद्हारण के लिए 1997 और 2002 के बीच बिहार को दलित कल्याण योजनाओं के लिए करोड़ों रुपए आवंटित किए गए थे। डेढ़ दशक बाद जब इंडियास्पेंड ने सूचना का अधिकार के अनुरोध माध्यम से जानने की कोशिश की कि इनमें से कितनी राशि दलितों पर खर्च हुई है तो जवाब मिला कि “पूरी रिपोर्ट एकत्र की जा रही है।”
35 वर्ष पहले शुरु किए जाने के बावजूद दोनों फंड सरकारों द्वारा अधिकांश अछूते ही हैं। लेख के पहले भाग में इंडियास्पेंड ने बताया कि अनुसूचित जातियों और जनजातियों के जीवन में सुधार करने के लिए निर्धारित 2.8 लाख करोड़ रुपए (42.6 बिलियन डॉलर) अव्ययित हैं जबकि संभावित लाभार्थियों का गंभीर रुप से अभावग्रस्त होना जारी है।
पॉल दिवाकर, एससीएसपी – टीएसपी विधान, (एक संगठन जो विशेष योजनाओं पर नजर रखता है) के संयोजक कहते हैं, “लोगों की ज़रुरतों को पूरा करने के लिए सरकारें आंवटित धन ले कर दूर हो जाती हैं लेकिन वास्तव में खर्च नहीं करती हैं।”
इस उपेक्षा के दो बड़े कारण हैं : सबसे पहला, योजना के समर्थन के लिए कोई कानून नहीं है। दूसरा, राज्य सरकार द्वारा स्थापित समीतियां, कई स्तरों पर राशि के इष्टतम उपयोग सुनिश्चित करने के लिए अप्रभावी साबित हो रही हैं। यह पैनलें स्थानीय स्तर पर मुद्दों की पहचान, उन्हों संबोधित करने के लिए उपयुक्त योजनाएं और तंत्र खामियों को ठीक करने के लिए प्रतिक्रिया के लिए बने थे।
नीति आयोग से प्राप्त दस्तावेजों के साथ इंडियास्पेंड ने बिहार के व्यय की जाच की है। आयोग के अनुसार, 1998-99और 2001-02 में 628 करोड़ रुपये और 2,393 करोड़ रुपये रुपये आवंटित होने के बावजूद बिहार में शून्य पैसे खर्च किए गए हैं।
ये स्थिति सिर्फ बिहार की ही नहीं है ऐसे और भी राज्य हैं। एक आरटीआई प्रतिक्रिया से पता चला है कि नीति आयोग के यह जानकारी नहीं है कि इन वर्षों में 3.1 लाख करोड़ रुपये किस प्रकार खर्च हुए हैं। इसका मुख्य कारण राज्यों का रिपोर्ट न करना है।
अनुसूचित जाति व जनजातीय उप योजना के तहत राशि जिनका व्यय विवरण उपलब्ध नहीं है
Source: Response to Right to Information requests
राज्यों के लिए अलग सूचना के अधिकार से पता चला है कि कुछ को छोड़ कर, किसी के पास भी खर्च कि गयी राशि कि की पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है। उदाहरण के लिए , केरल के पास र टीएसपी धन के आवंटन और व्यय पर 1976-2015 से डेटा मौजूद है।लेकिन असम के पास 2009-10 से पहले का कोई भी डेटा नहीं है।
इसके अलावा, एक ही वर्ष के लिए नीति आयोग के व्यय के आंकड़ों और राज्यों के बीच विसंगतियाँ थी।
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) शासन के दौरान सरकार ने राष्ट्रमंडल खेलों के लिए इस राशि का इस्तेमाल किया था। बाद में, यह पता चला था कि वह राशि दिल्ली सरकार द्वारा दीवाई की मिठाई खरीदने में इस्तेमाल किया गया था।
2014-15 में, कानून होने के बावजूद तेलंगाना में दलितों के लिए आवंटित राशि में से 61.26 फीसदी से अधिक खर्च नहीं किया गया है और आदिवासियों के लिए 64.3 फीसदी आवंटित किया गया था और दोनों मिला कर 7,475.1 करोड़ रुपये होते हैं।
कर्नाटक और आंध्रा प्रदेश में स्थिति काफी हद तक एक जैसी ही है। हैदराबाद के सेंटर फॉर दलित स्टडीज के पूर्व निदेशक, अंजनायुलु का कहना है, ‘हालांकि विधेयक पारित किया गया था , लेकिन इस पर कोई कानून नहीं बनाया गया है और सरकार इसका उपयोग ढ़ाल के रुप में कर रही है।’