नई दिल्ली: समय-समय पर भारत सरकार ने देश में सउदी स्टाइल वाले इस्लाम के बढ़ते नैतिकतावादी खतरों के प्रति सचेत किया है। हाल ही में, कश्मीर में अशांति के दौरान सरकार ने घाटी में “वहाबी धर्मतंत्र” के प्रति कड़ा रुख अख्तियार करते कहा था कि वह इसे स्वीकार नहीं करेगी। लेकिन आंकड़े, मूल रूप से सउदी अरब के वहाबिज्म या सैलाफिज्म जैसे इस्लाम की इस प्रकृति के प्रसार और उसकी फंडिंग के बीच ऐसे कथन की पुष्टि नहीं करते।
एनडीटीवी ने सरकार के विदेशी अनुदान नियमन अधिनियम (एफसीआरए) वेबसाइट के पिछले तीन वर्ष के लेखाजोखा को खंगाला है जिसमें भारतीय एनजीओ को विदेशों से प्राप्त होने वाले फंड का ब्योरा दिया गया है। इस्लामिक चैरिटी से फंड लेने वाले राज्यों में 55 करोड़ करोड़ रुपये के साथ उत्तर प्रदेश पहले नंबर है। राज्य के उत्तर पूर्वी हिस्से पर नेपाल बॉर्डर से जुड़े इलाकों पर चलने वाले एनजीओ को इसी तरह का फंड मिल रहा है।
एनडीटीवी का दावा है कि इटवा के ऐसे ही एक संस्थान अल फ़ारुक़ के प्रमोशनल वीडियो के अनुसार, 25 वर्ष पूर्व इसकी स्थापना कतर आधारित सैलाफी उपदेशक और स्थानीय मौलाना ने की थी। कतर के राज परिवार द्वारा चलाए जा रहे ट्र्स्ट से पिछले तीन साल में इस संस्थान को 2।34 करोड़ रुपये मिल चुके हैं।
उत्तर प्रदेश में अल फारुक़ समूह की स्थापना शेख शाबिर अहमद मदनी ने की थी। इस संस्थान में लगाए गए धन को बिल्डिंग – अनाथालयों और मदरसों के निर्माण के लिए दिखाया गया है। लेकिन यह मूल सैलाफिस्ट विचारधारा पर चल रहा है जो कि भारतीय उपमहाद्वीप में प्रचलित सूफी इस्लाम के लिए उपेक्षापूर्ण हैं। अल फारुक़ के संस्थापक शाबिर अहमद मदनी का कहना है, “आज जिसे सूफी इस्लाम कहते हैं, वह बिल्कुल भी इस्लाम नहीं है। यह इस्लाम का विकृत रूप है। खुद को मुस्लिम कहने वाले ये लोग विकृत स्वरूप के हैं। ”
उन्होंने दावा किया कि उनकी विचारधारा उनके संस्थापकों – क़तर आधारित शेख ईद बिन मोहम्मद अल थानी चैरिटेबल एसोसिएशन से प्रभावित नहीं है। अपनी साइट पर, यह एसोसिएशन इस तरह से दिखाई देता है जैसे वह अंतर्राष्ट्रीय चैरिटी संगठन हो। लेकिन इससे संस्थापक एब्द अल रहमान अल नुयामि को अरब पेनिसुला में अलकायदा और अन्य इस्लामिक समूहों को फंडिंग के आरोप में अमेरिका के विदेशी विभाग द्वारा दिसंबर 2003 में वैश्विक आतंकवादी घोषित किया गया है।
अपनी खबर में एनडीटीवी ने कहा है कि अल थानी एसोसिएशन के संबंध में कई सवालों के जवाब नहीं मिल पाए। एसोसिएशन का बचाव करते हुए मदानी ने कहा, “यह महज आरोप है। क्या वास्तविक दुनिया में वास्तविक साक्ष्य हैं।” इसी पैटर्न को 2009 में सफा एजुकेशनल और टेक्निकल वेलफेयर सोसाइटी में दोहराया गया जिसे पिछले 6 सालों में 4।56 करोड़ रुपये कुवैत से प्राप्त हुए हैं।
यहां भी फंड को शैक्षणिक उद्देश्य के लिए दिखाया गया है और यहां भी सैलाफिस्ट का भारतीय इस्लाम के अन्य स्वरूपों के प्रति घृणा स्पष्ट दिखाई देती है।सफा समूह के संस्थापक अब्दुल वहीद मदनी ने कहा कि पैसे बिना स्ट्रिंग के आते हैं लेकिन सफा समूह के मुख्य दानदाता जमियत ऐहायुत तुरस अल इस्लामी के बारे में संदेह पैदा होता है।
एनडीटीवी का कहना है कि उन्हे ऑनलाइन स्तर पर इस संगठन के संबंध में कोई जानकारी नहीं मिल सकी। इसका नाम केवल कुवैत की रीवाइवल ऑफ इस्लामिक हेरिटेज सोसायटी नाम के अन्य चैरिटी की सूची में मिला। इस सोसायटी पर अमेरिका के विदेश विभाग ने अल कायदा नेटवर्क से जुड़े होने के कारण प्रतिबंध लगाया हुआ है। एनडीटीवी ने रीवाइवल ऑफ इस्लामिक हेरिटेज सोसाइटी के बारे में जानकारी हासिल करने की बहुत कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली।
यह पैटर्न पूरे नेपाल बॉर्डर पर जारी है जहां पिछले कुछ वर्षों में सैलाफिस्ट मदरसों की संख्या में बढ़ोतरी हुई है। बॉर्डर के बाहर आसानी से आवाजाही होने के कारण यहां पर सबसे ज्यादा संख्या भारतीय छात्रों की है। नेपाल बॉर्डर के एक कस्बे झंडा नगर जामिल में सेराजुलुलूम अल-सैलफिया मस्जिद को सउदी अरब के प्रसिद्ध चैरिटी रबीता अल आलम अल इस्लामी या मुस्लिम वर्ल्ड लीग से फंड मिला है। महासचिव शमीम अहमद खान ने स्पष्ट किया कि लीग से प्राप्त रुपये का उपयोग किताबों और शिक्षकों का वेतन देने के लिए किया जाता है। लेकिन बताया जाता है कि मुस्लिम वर्ल्ड लीग दोहरी भूमिका निभा रहा है।
सउदी अरब में भारत के राजदूत रहे तलमीज़ अहमद का कहना है, “मुस्लिम वर्ल्ड लीग सिद्धांतवादी संगठन है जो अफगानिस्तान में वैश्विक जिहाद के समर्थन में विश्व के भिन्न हिस्सों से प्राप्त संसाधनों के वितरण का समन्यवयन करता है।”
उन्होंने आगे बताया, “लीग ने 1988 में पाकिस्तान में रबीता ट्रस्ट की स्थापना की थी, जिसे 9/11 की घटना के बाद अमेरिका के विदेशी विभाग द्वारा अलकायदा से जुड़े होने के चलते प्रतिबंधित कर दिया गया था। वेअल हमज़ा जुलैदन सउदी अरब के व्यवसायी और रबीता ट्रस्ट के भूतपूर्व सचिव ने अस्थायी तौर पर अपने अफगानिस्तान प्रवास के दौरान इस लीग का नेतृत्व किया था। वह 1988 में अलकायदा की स्थापना से जुड़ा हुआ था।”
उत्तर प्रदेश के बाद, कर्नाटक ऐसा राज्य है जिसे इस्लामिक चैरिटी से पिछले तीन साल में 38 करोड़ रुपये मिले हैं। एफसीआरए के रिकॉर्ड के मुताबिक, कर्नाटक में इस्लामिक चैरिटी से सबसे ज्यादा धन पाने वाले शीर्ष 5 में से 3 एनजीओ नाम मदीना अल-उलूम शैक्षणिक ट्रस्ट, राबिया बसरी रहमत-उल्लाही-अल्लाह चैरिटेबल ट्रस्ट और सादिया शैक्षणिक और चैरिटेबल ट्रस्ट शिमोगा के हैं। इन तीनो एनजीओ को कुल 36।5 करोड़ रुपये प्राप्त हुए हैं।
ये सभी तीनों एनजीओ स्कूल और मदरसे चला रहे हैं तथा सभी सैलाफिस्ट प्रकृति के हैं। इन तीनों को संयुक्त अरब अमीरात और कुवैत आधारित अंतर्राष्ट्रीय इस्लामिक चैरिटेबल संगठन (आईआईसीओ) विदेश से फंडिंग से हो रही है।
एनडीटीवी का दावा है कि उन्हे 19 जनवरी 2009 का एक विकीलीक्स वायर मिला जिसमें आईआईसीओ के बोर्ड के सदस्य और फलीस्तीनी समिति के प्रमुख शेख नादिर अल नूरी पर फलीस्तीनी क्षेत्र में “विश्वस्त ज़कात समितियों” के जरिये फंड भेजने का आरोप लगाया गया है। इन समितियों में 22 के हमास से जुड़े होने का आरोप है। आईआईसीओ को इजराइल के रक्षा मंत्रालय द्वारा हमास और अन्य आतंकवादी संगठनों को चंदा देने के कारण प्रतिबंध लगाया जा चुका है। आईआईसीओ ने एनडीटीवी की ओर से मांगी गई जानकारी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मदीना अल-उलूम शिक्षा ट्रस्ट के प्रशासकों और शिक्षकों ने दावा किया कि यह फंड केवल शिक्षा के लिए है।
इसके अलावा, ये निजी मामले देश में सैलाफिस्ट संस्थानों की सच्चाई को नहीं दर्शाते हैं जिनकी संख्या 1000 है। लेकिन सरकारी एजेंसियों द्वारा फंड के स्रोत की जांच नहीं किए जाने के कारण भारतीय संगठनों तक पैसे की आवक आसानी से हो रही है जो कि चिंताजनक है।
खबर इनपुट – NDTV (khabar.ndtv.com)