रोका की रस्म है सामाजिक कुरीति के समान : हाई कोर्ट

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रोका की रस्म
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नई दिल्ली : दिल्ली हाईकोर्ट का कहना है कि पंजाब में रोका की रस्म एक सामाजिक कुरीति है- जो हमें समय से 25 साल पीछे ले जाता है। यह टिप्पणी दिल्ली हाई कोर्ट ने एक महिला की याचिका पर सुनवाई के दौरान की। महिला ने उसके तलाक की अनुमति के निचली अदालत के फैसले को चुनौती दी थी।न्यायमूर्ति प्रदीप नंदराजोग व न्यायमूर्ति प्रतिभा रानी की खंडपीठ ने निचली अदालत के फैसल को रद करते हुए कहा कि रोका की रस्म में दंपती को गुलाम की तरह देखा जाता है। इसे खत्म होना चाहिए। इसका महत्व यह होता है कि लड़की के परिवार ने जो पैसा लड़के के परिवार को दे दिया है, उससे समाज में संदेश चला जाए कि अब दोनों पक्षों में से कोई वर-वधु की तलाश नहीं करेगा। अब यह तलाश खत्म हो जाएगी। खंडपीठ ने कहा कि रोका की रस्म काफी खर्चीला है और कई मामलों में भविष्य में कलह का कारण बनता है।

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पेश मामले में सिख समुदाय से संबंध रखने वाले दंपती की वर्ष 2006 में शादी हुई थी। शादी के बाद उनका एक बेटा हुआ। हालांकि दिसंबर 2006 में महिला ने पति पर शराब पीने की लत व मारपीट करने का आरोप लगाते हुए ससुराल छोड़ दिया था और अपने माता-पिता के साथ रहने लगी थी। इसके बाद मामला तलाक के लिए निचली अदालत में पहुंचा। पति ने आरोप लगाया कि रोका के बाद महिला ने फोन पर उपहार में कम कीमती सामान देने का आरोप लगाया था। हालांकि महिला ने सभी आरोपों को सिरे से नकार दिया था। 2013 में क्रूरता व परित्याग के आधार पर अदालत ने तलाक के आदेश दे दिए जिसे महिला ने हाई कोर्ट में चुनौती दी थी। अदालत ने कहा कि इस मामले में क्रूरता और परित्याग दोनों सिद्ध नहीं हुआ है। हालांकि पति द्वारा शराब पीना व डिप्रेशन की दवा लेने से इन्कार करना समस्या की जड़ जरूर थी। मानव संबंध भावनाओं पर बनते हैं। ये तर्को व कारणों के आधार पर नहीं होते। भावनाएं कोई विज्ञान नहीं हैं। कानून व न्याय तर्को व कारणों पर टिका होता है भावनाओं पर नहीं। यही कारण है कि वैवाहिक विवादों में न्यायिक प्रक्रिया पहेलियों व उलझनों से भरी रहती है।

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