सेकुलरिज्म और सियासत में सब जायज है

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सेकुलरिज्म

इमरजेंसी के दौरान अपनी सत्ता बचाने और लोगों को इमरजेंसी के ‘फायदे’ बताने के लिए जब इंदिरा गांधी ने सेकुलरिज्म शब्द का इस्तेमाल किया था तब वह भी नहीं जानती थी कि वो मुल्क की सियासत में एक नया अध्याय जोड़ने जा रही है। ऐसा अध्याय जिसे आने वाली पीढ़ियां, और सियासतदां अपने-अपने हिसाब से पढ़ेंगे, समझेंगे और समझाएंगे।

लेकिन इससे पहले कि आपको भारत की राजनीति में सेकुलरिज्म की पैठ के बारे में बताए, जरा सेकुलरिज्म की उत्पत्ति और हिन्दुस्तान में इसके मतलब के बारे में भी जान लीजिए। इंग्लैंड की एक कहानी के मुताबिक एक विधवा के साथ दूसरी शादी पर अड़े हेनरी 8 को जब पोप ने धर्म से बहिष्कृत कर दिया तो हेनरी ने पोप से विद्रोह कर दिया, और एक कानून पारित किया जिसका नाम था एक्ट ऑफ़ सुप्रीमैसी। इस एक्ट के मुताबिक (मोटा-मोटी) चर्च या पोप राज्य के कानून या काम में कोई दखल नहीं दे सकता था। चर्च और राज्य के इसी अलगाव को नाम दिया गया सेकुलरिज्म। लेकिन भारत में सेकुलरिज्म शब्द का सिर्फ़ एक ही मतलब है – अल्पसंख्यकों का हित। जरा ध्यान दीजिएगा। इंग्लैंड में एक धर्म के जंजाल से मुक्ति पाने के लिए सेकुलरिज्म की उत्पत्ति हुई थी, और भारत में सेकुलरिज्म को दूसरे धर्म से जोड़ कर प्रस्तुत कर दिया गया। आश्चर्य है कि भारत के बुद्धिजीवियों को ये मान्य भी है।

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बहरहाल बात राजनीति की हो रही थी। भारत की राजनीति में सेकुलरिज्म बहुत पहले से है। तभी से जब से ये मुल्क आजाद हुआ। इंदिरा गांधी ने तो बस इसे संज्ञा दे दी। जरा भारतीय राजनीति के इतिहास के पन्ने पलट कर तो देखिए, धर्मनिरपेक्षता और सेकुलरिज्म के एक से एक उदाहरण दिखाई देंगे। कांग्रेस की धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरिज्म पर कोई अंगुली ना उठे इसलिए जवाहरलाल नेहरू ने सोमनाथ मंदिर के कमिटी से खुद को अलग कर लिया था। इतना ही नहीं उन्होने तब के सौराष्ट्र के मुख्यमंत्री को मंदिर के निर्माण में सरकारी पैसा ना खर्च करने की हिदायत भी दी थी। हैरानी तो इस बात की कि नेहरू ने उस समय के राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को सोमनाथ मंदिर का उदघाटन ना करने की भी सलाह दी थी। ये सब हुआ था अपनी सेकुलर छवि बचाने के लिए। हालांकि राजेंद्र प्रसाद ने नेहरू की सलाह नहीं मानी थी।

इसी तरह से अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि बचाने के लिए नेहरू ने हिंदू आचार संहिता विधेयक पारित कराया, जिसका राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद तक ने विरोध किया था। खुद को सेकुलर साबित करने का सबसे हास्यास्पद और ज्वलंत उदाहरण है शाहबानो केस। उम्मीद है इस केस से आप वाकिफ़ होंगे। मुस्लिम मामलों में सियासत, खुद को धर्मनिरपेक्ष और मुसलमानों का हितैषी साबित करने का सबसे वीभस्त उदाहरण है शाहबानों केस। मामला ये था कि शाहबानों के पति ने उसे तलाक दे दिया था और शाहबानों पति से अलग रहने के लिए हर्जाने की मांग कर रही थी। मध्य प्रदेश की रहने वाली पांच बच्चों की मां शाहबानो ने सुप्रीम कोर्ट तक से मुकदमा जीत लिया था, बावजूद इसके शाहबानों को हर्जाना नहीं मिला। सुप्रीम कोर्ट का फैसला मुस्लिम धर्मगुरूओं को मुस्लिम अधिकारों का हनन लगा। ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले का विरोध किया। हवा का रूख भांप कर और खुद को मुस्लिमों का हितैषी और सेकुलर साबित करने के लिए राजीव गांधी ने 1986 में मुस्लिम महिला अधिनियम (तलाक अधिकार संरक्षण) पारित किया। इस अधिनियम के पारित होने के बाद, कोई भी मुस्लिम पति तलाक देने के बाद अपनी पत्नी को हर्जाना देने की जिम्मेदारी से मुक्त हो गया। ये सब कुछ हुआ खुद को मुसलमानों को शुभचिंतक साबित करने के लिए।

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ये तो हुई इतिहास की बात। जरा आज की राजनीति की बात भी कर लीजिए। बाबरी मस्जिद कांड को किसी भी सूरत में जायज नहीं ठहराया जा सकता, लेकिन बाबरी कांड के बाद सेकुलरिज्म के नाम पर जो सियासत शुरू हुई वो आज तक जारी है। बाबरी मस्जिद गिराए जाने की घटना पर मुलायम ने कहा कि उन्होने कि कारसेवकों को गोलियां चलाने का आदेश दिया था। ऐसा उन्होने खुद को सेकुलर और मुस्लिमों का हितैषी साबित करने के लिए कहा था। कांवड यात्रा के दौरान डीजे ना बजाने का आदेश अखिलेश ने खुद को सेकुलर साबित करने के लिए ही दिया होगा।अखलाक प्रकरण पर सभी राजनीतिक दलों ने खूब रोटियां सेकीं, और आज भी सेंक रहे हैं।

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ये तो कुछ उदाहरण भर हैं। भारत की सियासत, सेकुलरिज्म की ऐसी कहानियों से भरी पड़ी है। लेकिन जरा सोचिए। नेहरू के खुद को सोमनाथ मंदिर कमेटी से अलग कर लेने से भारत के मुसलमानों को क्या फायदा हुआ ? हिंदू आचार संहिता विधेयक से मुसलमानों को क्या फायदा हुआ? शाहबानों प्रकरण से मुस्लिम समाज को क्या फायदा हुआ? मुलायम के बयान से, अखिलेश के फ़ैसलों से, अखलाक पर सियासत से भारत के एक आम मुसलमान को क्या फायदा हुआ? अयोध्या में मंदिर बन जाए तो एक हिंदू के जीवन में क्या सुधार होगा? और अगर मस्जिद बन जाए तो एक आम मुसलमान की जिंदगी कितनी सुधरेगी? सेकुलरिज्म से ना हिंदुओं को फायदा हुआ और ना मुसलमानों। फायदा हुआ है तो सियासत और सियासतदानों को। सेकुलरिज्म के नाम पर उनकी सियासत यूं ही चलती रहेगी। आखिर सेकुलरिज्म और सियासत में जब जायज जो है।