दिवाली का त्योहार जितना प्रचलित आज हिन्दुओं में है, उतना ही प्रचलित यह मुगल काल में भी हुआ करता था। मुगलों की हुकूमत के दौरान धार्मिक स्वतंत्रता अपना धर्म पालन करने तक सीमित नहीं थी, बल्कि उन्होंने एक ऐसा नया माहौल बनाया, जिसमें सभी धर्मों को मानने वाले एक-दूसरे की खुशियों में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते थे। मुगलकाल में विभिन्न हिंदू और मुसलिम त्योहार खूब उत्साह और बिना किसी भेदभाव के मनाए जाते थे। अनेक हिंदू त्योहार मसलन दीपावली, शिवरात्रि, दशहरा और रामनवमी को मुगलों ने राजकीय मान्यता दी थी। मुगलकाल में खासतौर से दिवाली पर एक अलग ही रौनक होती थी। दीप पर्व आगमन के तीन-चार हफ्ते पहले ही महलों की साफ-सफाई और रंग-रोगन के दौर चला करते। ज्यों-ज्यों पर्व के दिन नजदीक आने लगते, त्यों-त्यों खुशियां परवान चढ़ने लगतीं। दीयों की रोशनी से समूचा राजमहल जगमगा उठता, जिसे इस मौके के लिए खासतौर पर सजाया-संवारा जाता था।
मुगल शासक बाबर ने दिवाली के त्योहार को ‘एक खुशी का मौका’ के तौर पर मान्यता प्रदान की थी। वे खुद दीपावली को जोश-ओ-खरोश से मनाया करते थे। इस दिन पूरे महल को दुल्हन की तरह सजा कर कई पंक्तियों में लाखों दीप प्रज्वलित किए जाते थे। इस मुकद्दस मौके पर शहंशाह बाबर अपनी गरीब रियाया को नए कपड़े और मिठाइयां भेंट करते थे। बाबर ने अपने बेटे हुमायूं को भी दिवाली के जश्न में शामिल होने की समझाइश दी। बाबर के उत्तराधिकारी के तौर पर हुमायूं ने न सिर्फ इस परंपरा को बरकरार रखा, बल्कि इसमें और दिलचस्पी लेकर इसे और आगे बढ़ाया। हुमायूं दीपावली हर्षोल्लास से मनाते थे। इस मौके पर वे महल में महालक्ष्मी के साथ दीगर हिंदू देवी-देवताओं की पूजा भी करवाते और अपने गरीब अवाम को सोने के सिक्के उपहार में देते थे। लक्ष्मी-पूजा के दौरान एक विशाल मैदान में इसके बाद आतिशबाजी चलाई जाती, फिर 101 तोपें चलतीं। इसके बाद हुमायूं शहर में रोशनी देखने के लिए निकल जाते। ‘तुलादान’ की हिंदू परंपरा में भी हुमायूं की दिलचस्पी थी।
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