यदि 2014 के लोकसभा चुनाव की तरह जातीय खांचे फिर से टूटते हैं। गैर यादव ओबीसी और गैर जाटव दलित लामबंद होते हैं तो भाजपा सरकार बन सकती है। भाजपा के प्रदेशस्तरीय एक नेता कहते हैं कि सपा सरकार भले पिछड़ों की सरकार मानी जाती है। मगर पोस्टिंग हो या फिर अन्य लाभार्थी योजनाओं, उसमें यादवों को छोड़कर बाकी पिछड़ों को नजरअंदाज किया जाता रहा है। अति पिछड़ों की सपा सरकार से यही नाराजगी की मूल वजह है, जिसे भाजपा जमकर भुना रही हो। इसी मंशा से मोदी और शाह जिस दिन यूपी जीतने के लिए मंथन करने बैठे तो सबसे पहले उन्होंने अति पिछड़ा चेहरा तलाशना शुरू किया। तलाश फूलपूर सांसद केशव मौर्य पर आकर खत्म हुई। बाजपेयी की विदाई कर प्रदेश अध्यक्ष पद पर केशव मौर्या बैठा दिए गए। ताकि 31 प्रतिशत गैर यादव ओबीसी को टारगेट किया जा सके। फिर भाजपा के नसीब से स्वामी मौर्या भी मायावती से बिदककर शाह की गोद में आकर बैठ गए। प्रदेश की करीब 110 सीटें ऐसी हैं जहां अति पिछड़ों का आठ से 15 फीसदी के बीच वोटबैंक है।जौनपुर के मछलीशहर सांसद रामचरित्र निषाद को मोदी-शाह ने मल्लाहों को जोड़ने का जिम्मा दे दिया। पूर्वांचल में राजभरों की पार्टी भारतीय समाज पार्टी से पहले से चल रहा गठबंधन और मजबूत किया गया। मुखिया ओमप्रकाश राजभर को राजभरों को एकजुट करने का मंत्र दिया गया। पासी नेता की भी तलाश हुई। इस प्रकार भाजपा ने गैर यादव ओबीसी में शामिल हर जाति का नेता तलाशा और निचले लेबल तक यह मैसेज दिया कि भाजपा अब सवर्णों की पार्टी नहीं बल्कि पिछड़ों और दलितों की भी पार्टी है। कुछ हद तक भाजपा का यह प्रयोग सफल दिख रहा। हालांकि यह वक्त बताएगा कि यह प्रयोग कितने सचमुच में नतीजे देगा या नहीं।