जहांगीर के शासनकाल में दिवाली के अलग ही रंग थे। वे भी दिवाली मनाने में अकबर से पीछे नहीं थे। किताब ‘तुजुक-ए-जहांगीर’ के मुताबिक साल 1613 से 1626 तक जहांगीर ने हर साल अजमेर में दिवाली मनाई। वे अजमेर के एक तालाब के चारों किनारों पर दीपक की जगह हजारों मशालें प्रज्वलित करवाते थे। इस मौके पर शहंशाह जहांगीर अपने हिंदू सिपहसालारों को कीमती नजराने भेंट करते थे। इसके बाद फकीरों को नए कपड़े, मिठाइयां बांटी जातीं। यही नहीं, आसमान में इकहत्तर तोपें दागी जातीं और बड़े-बड़े पटाखे चलाए जाते।
मुगलकाल में हिंदू तथा मुसलिम समुदायों के छोटे-से कट्टरपंथी तबके को छोड़ सभी एक-दूसरे के त्योहारों में बगैर हिचकिचाहट भागीदार बनते थे। दोनों समुदाय अपने मेलों, भोज तथा त्योहार एक साथ मनाते। दिवाली का पर्व न केवल दरबार में पूरे जोश-खरोश से मनाया जाता, आम लोग भी उत्साहपूर्वक इस त्योहार का आनंद लेते। दिवाली पर ग्रामीण इलाकों के मुसलिम अपनी झोंपड़ियों व घरों में रोशनाई करते तथा जुआ खेलते। वहीं मुसलिम महिलाएं इस दिन अपनी बहनों और बेटियों को लाल चावल से भरे घड़े उपहारस्वरूप भेजतीं। यही नहीं, दिवाली से जुड़ी सभी रस्मों को भी पूरा करतीं।
मुगल शहंशाह ही नहीं, बंगाल तथा अवध के नवाब भी दिवाली शाही अंदाज में मनाते थे। अवध के नवाब तो दीप पर्व आने के सात दिन पहले ही अपने तमाम महलों की विशेष साफ-सफाई करवाते। महलों को दुल्हन की तरह सजाया जाता। महलों के चारों ओर तोरणद्वार बना कर खास तरीके से दीप प्रज्वलित किए जाते थे। बाद में नवाब खुद अपनी प्रजा के बीच में जाकर दिवाली की मुबारकबाद दिया करते थे। उत्तरी राज्यों में ही नहीं, दक्षिणी राज्यों में भी हिंदू त्योहारों पर उमंग और उत्साह कहीं कम नहीं दिखाई देता था। मैसूर में तो दशहरा हमेशा से ही जबर्दस्त धूमधाम से मनाया जाता रहा है। हैदर अली और टीपू सुल्तान, दोनों ही विजयदशमी पर्व के समारोहों में हिस्सा लेकर अपनी प्रजा को आशीष दिया करते थे। मुगल शासकों ने भी दशहरा पर्व पर भोज देने की परंपरा कायम रखी।