नोएडा: कभी ब्राम्हणों को मनुवादी बताने वाली मायावती और बसपा ने नारा दिया था कि ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’. वक्त बदला, समाज बदली, वोटरों की पसंद बदली तो मायावती की सोच भी बदली. बहन जी की सोच बदली तो फिर नारा भी बदला. मास्टरमाइंड सतीशचंद्र मिश्र के देख रेख में ब्राम्हणों को रिझाने के लिए मायावती ने जो मास्टरप्लानिंग की उसके तहत नया नारा दिया गया. ये नया नारा था ‘ब्राम्हण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’. मतलब साफ़ था. मायावती का विश्वास अपने कोर वोटरों यानी दलितों और कुछ हद तक मुस्लिम पर से डोलने लगा था. उन्हे लगा कि बिना ब्राम्हणों के यूपी का नैया पार लगनी मुश्किल है. बहरहाल माया के इस नए नारे ने काम किया और 2007 में उन्हे बहुमत से विधानसभा में बिठाया. लेकिन फिर वक्त बदला और पहले लोक सभा और फिर विधानसभा में बसपा को ना सिर्फ़ मुंह की खानी पड़ी, बल्कि पार्टी, यूपी में अपनी अस्तित्व को बचाने की लड़ाई लड़ने के मुहाने पर आ खड़ी हुई.
अब एक बाद फिर से मायावती को लगता है कि उन्होने ब्राम्हणों को अपने से जोड़कर अपने कोर वोटबैंक को भी खो दिया है. विधानसभा तो वो हार चुकी है. लोकसभा में अभी दो साल है. लेकिन बहन जी अभी से लोकसभा चुनावों की तैयारी में जुट गई हैं. लेकिन इस बार वो ब्राम्हणों को अपने से जोड़ने वाली भूल करने के मूड में नहीं है. इसिलिए अपने कोर वोटरों यानी कि दलितों का हिमायती बनने के लिए उन्होने फिर से एंटी ब्राम्हण नारा दिया है . अबकी बार उनका नारा है ‘ब्राम्हण उत्पात मचाएगा, हाथी बढ़ता जाएगा’
यानी कि मायावती और बसपा ने ब्राम्हणों को हमेशा इस्तेमाल करने वाली सोच के साथ देखा है. पार्टी को जब दलितों से फायदा था तब उसने एंटी ब्राम्हण नारा दिया, फिर ब्राम्हणों को अपनी मिलाया, और अब एक बार से पार्टी अपने एंटी ब्राम्हण एजेंडे से काम कर रही है.
दर-असल, ये मोदी लहर का असर है. बीजेपी के साथ किस किस तबके के लोग है ये अभी तक अधिकांश पार्टियां नहीं समझ पाई हैं. पहले मुस्लिमों को एंटी बीजेपी माना जाता था, लेकिन यूपी विधानसभा चुनावों में मुस्लिमों ने बड़ी संख्या में बीजेपी को वोट दिया. इसके अलावा कभी अनुसूचित जातियों (दलित) कोरी, खटिक, धोबी, मेहतर, कुछबंधिया, पासी और पिछड़े वर्ग की आरख, कहार, केवट, कुम्हार, काछी, कुर्मी, कलार, कचेर जैसी कई जातियों ने बसपा में राजनीतिक उपेक्षा के चलते पाला बदलते हुए भाजपा उम्मीदवारों के पक्ष में एकतरफा मतदान किया. यहां तक कि कभी बसपा का गढ़ रहे बुंदेलखंड में बसपा का खाता तक नहीं खुला और भाजपा सभी 19 सीटें जीतने में सफल हुई.
बसपा के बड़े नेता अभी भी इन भूलों को स्वीकार करने का साहस नहीं कर पाए हैं, लेकिन जमीनी स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ता जानते हैं कि बसपा के हार की मूल वजह यहीं है.
तो क्या एक ब्राम्हणों के प्रति एक बार फ़िर से अपना नजरिया बदल कर मायावती अपनी जीत के प्रति आश्वस्त हो सकती हैं? लेकिन इस बार कहीं ऐसा ना हो कि दलित, ब्राम्हण, पिछड़ा और मुस्लिम सभी मायावती से किनारा कर लें. आखिर मायावती जैसी परिपक्व नेता, अपनी और अपनी पार्टी की सोच को लेकर इतना अपरिपक्व रवैया क्यों अपनाए हुए हैं ?