आर्थिक उदारीकरण के बाद देश के एक कोने से दूसरे कोने नौकरी करने जाना आम बात हो गयी। ऐसे में अपने ही बैंक में ब्रांच बदलवाना गैर-जरूरी हो गया। इससे खाता धारक और बैंक दोनों के समय और संसाधनों का नुकसान ही होता है। कम्प्यूटरिकृत सिस्टम में बैंकों को होम ब्रांच के इतर किसी दूसरी ब्रांच में आने वाले ग्राहकों को सुविधा देने के लिए कोई अतिरिक्त खर्च शायद ही करना होता है। ऐसे में उम्मीद की जा रही थी कि बैंक होम ब्रांच के इतर बाकी ब्रांच से लिए किए जाने वाले लेन-देन को पूरी तरह खत्म कर देंगे। लेकिन बैंकों ऐसा कदम उठाया जो बैंकिंग सिस्टम को बीस साल पीछे ले जाने वाला प्रतीत होता है। एक तरह से बैंक ग्राहकों को अपनी नजदीकी शाखा में जाने के बजाय होम ब्रांच में जाने के लिए बाध्य कर रहे हैं।
ऐसा नहीं है कि बैंकों के होम ब्रांच से इस प्रेम के शिकार वही होंगे जो एक शहर से दूसरे शहर जा रहे हों। दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में लाखों लोग शहर के एक कोने से दूसरे कोनों में नौकरी बदलती रहते हैं। यानी पहली नौकरी के दौरान उन्होंने जहां खाता खुलवाया होगा उन्हें बार-बार वहां तक लौट के जाना होगा। या फिर हर बार नौकरी बदलने के साथ बैंक ब्रांच भी बदलवाना होगा।