1938 में सोलह साल की उम्र का एक लड़का जब अपने मां बाप और बारह भाई बहनों के साथ पाकिस्तान से मुंबई के लिए चला तो कोई नहीं जानता था किस्मत क्या चाह रही है. इस लड़के का नाम था युसुफ़ सरवर खान. कई सालों बाद दुनिया ने इसी लड़के को दिलीप कुमार के नाम से जाना.जिसके बरदगी छांव के नीचे आज भी फ़िल्म इंडस्ट्री के कई पौधे खिल रहे हैं.
सिल्वर स्क्रीन पर अपनी एक्टिंग से एक मयावी संसार रचने का हुनर था दिलीप कुमार के पास. वो हुनर जो कल भी कामयाब था और आज भी कामयाब है. इसिलिए दिलीप कुमार कल भी सफ़ल थे और आज भी. आज भले ही उन्होने फ़िल्में करनी छोड़ दी हो, लेकिन उनकी फ़ैन फ़ालोविंग कम नहीं है. आज भी उनके उतने ही दीवाने हैं जो तब थे जब दिलीप कुमार लाठियां घुमाकर गांव की छोरियों को रिझाया करते थे, या फ़िर तब जब वो इमली के बूटे के पास नई पीढी को अमन और शांति का संदेश दिया करते थे.
हिंदी फ़िल्मो में ट्रेजडी किंग के नाम से मशहूर दिलीप कुमार का जन्म 11 दिसंबर 1922 को पेशावर में हुआ था जो अब पाकिस्तान में है. दिलीप कुमार का असली नाम था युसुफ़ खान था. युसुफ़ अपने बारह भाई बहनों में तीसरे नंबर थे. युसुफ़ के पिता लाला गुलाम सरवर का पेशावर के किस्सा ख्वानी बाजार में फ़लों का कारोबार था. ये इलाका पाकिस्तान में अब खैबर पख्तुनवा के नाम से जाना जाता है. लाला गुलाम सरवर की आमदानी बहुत ज्यादा नहीं थी लेकिन इतनी थी कि पूरा परिवार मजे से गुजारा कर सके. बचपन में दिलीप को, पेशावर की कड़कड़ाती सर्दी में अपने घर के दीवान में चटाई पर बैठ कर गुलाबी चाय और पेशावरी कुल्चे के साथ रोगिनी रोटी और हलीम खाना बहुत पसंद था. दिलीप कुमार को बचपन से ही घर में साहित्य का माहौल मिला. दिलीप के दादा हाजी मोहम्मद फ़ारसी भाषा के अच्छे जानकार थे और शायरी के भी शौकीन थे.
बड़े भाई ने जगाई थी साहित्य के प्रति रूचि
दिलीप कुमार के बड़े भाई अय्यूब खान को भी साहित्य से काफ़ी लगाव था. अय्यूब खान से ही दिलीप साहब को शेक्सपीयर, जॉर्ज बर्नाड शॉ, और डिकेंस के बारे में जानकारी मिली और साहित्य के प्रति लगाव बढ़ा. साहित्य के प्रति उनका लगाव उनकी फ़िल्मों और उनकी डायलॉग डिलीवरी में भी दिखाई देता है.
जब एक लाश के साथ कमरे में बंद हो गए थे दिलीप साहब
दिलीप के बचपन की एक ऐसी याद है जिसे याद करके दिलीप कुमार आज भी कांप जाते हैं. ये बात है 1930 की जब दिलीप कुमार महज आठ साल के थे. पेशावर के जिस मुहल्ले में दिलीप साहब रहते थे उसी मुहल्ले में एक मकान में एक खून हो गया. अपनी मां के साथ दिलीप कुमार भी उस मकान तक गए और गलती से मकान के अंदर चले गए. इतने में पुलिस आ गई थी. पुलिस को देखकर दिलीप साहब डर और एक पलंग के नीचे छिप गए. थोड़ी देर में पुलिस ने घर में बाहर से ताला लगा दिया. इसके बाद दिलीप कुमार करीब तीन घंटे तक उस घर में उस लाश के साथ रहे. उन्हे डर तो लगा था लेकिन उन्होने हौंसला नहीं छोड़ा.
मुंबई आने का सफ़र
1938 में दिलीप साहब का बड़े भाई अय्यूब खान का घोड़े से गिर जाने की वजह से एक्सिडेंट हो गया था. इस एक्सिडेंट में अय्यूब खान की किडनी खराब हो गई. उनका इलाज कराने के लिए दिलीप के पिता लाला गुलाम सरवएर ने पेशावर छोड़ कर मुंबई शिफ़्ट होने का फ़ैसला किया. 1938 में ही दिलीप कुमार का पूरा परिवार पेशावर से चलकर पूने के पास देवलाली में आ गया. देवलाली में दिलीप कुमार का परिवार करीब तीन साल तक रहा. इस बीच दिलीप के पिता देवलाली और मुंबई के बीच फ़लों का कारोबार किया करते थे. 1942 में द्वितिय विश्व युद्ध के समय देवलाली को फ़ौजी स्टेशन घोषीत कर दिया गया और दिलीप कुमार का परिवार देवलाली छोड़कर मुंबई चला आया.
जब मुकरी से पहली बार मिले दिलीप साहब
मुंबई आने के बाद दिलीप कुमार का परिवार मुंबई के बांद्रा में शिफ़्ट हो गया. दिलीप कुमार के पिता ने यहां पाली माला रोड पर एक बंगला किराए पर ले लिया. आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि जिस जगह पर ये बंगला लिया गया उससे थोड़ी ही दूरी पर दिलीप साहब आज रहते हैं, और स्वस्थ रहने पर वो अक्सर उस बंगले तक टहलने भी जाया करते हैं. इस मकान में शिफ़्ट होने के बाद दिलीप कुमार और उनके छोटे भाई नासिर का दाखिला मुंबई के अंजुमन इसलामिया स्कूल में हो गया. इसी स्कूल में दिलीप साहब की मुलाकात फ़िल्मों के हास्य कलाकार मुकरी से हुई. मुकरी स्कूल में दिलीप कुमार के सीनियर थे. उस समय भी मुकरी स्कूल के सभी बच्चों को हंसाया करते थे. इस स्कूल में दिलीप साहब ने फ़र्स्ट डिविजन में हाई स्कूल पास किया.
उर्दू की पढ़ाई छोड़ ग्रेजुएशन में लिया एडमिशन
हाई स्कूल पास करने के बाद दिलीप साहब अपने बड़े भाई अय्यूब खान की देख रेख में उर्दू साहित्य और विशेषकर, कुरान की पढ़ाई करना चाहते थे.लेकिन अपने पिता का आदेश मान कर उन्होने ग्रेजुएशन करने के लिए मुंबई के विल्सन कॉलेज में दाखिला ले लिया.
जब दिलीप का खेल देखने के लिए रूक जाया करते थी मुम्बई की टैक्सियां
विल्सन कॉलेज में उन्होने विज्ञान की पढ़ाई करनी शुरू की.लेकिन इस कॉलेज में दिलीप साहब ज्यादा दिनों तक नहीं रूके. और इसकी बजह थी फ़ुटबाल के प्रति उनका हद से ज्यादा दीवानापन. दिलीप साहब को फ़ुटबाल खेलने का बेहद शौक था, और विल्सन कॉलेज में उन्हे फ़ुटबाल खेलने को नहीं मिलता था. इसलिए उन्होने ये कॉलेज छोड़कर खालसा कॉलेज में एडमिशन लिया. यहां अपनी पढ़ाई के साथ साथ उन्हे फ़ुटबाल खेलने का पूरा मौका मिलता था. शायद फ़ुटबाल के प्रति उनका लगाव ही था जिसकी वजह से दिलीप कुमार 91 साल की उम्र में खासे दुरुस्त हैं. खालसा कॉलेज में दिलीप कुमार ने पढ़ाई के साथ साथ फ़ुटबाल में भी नाम कमाया. कॉलेज के दिनों में वो एक मशहूर खिलाड़ी बन गए थे. आपको ये जानकर आश्चर्य होगा कि जब दिलीप साहब कॉलेज में फ़ुटबाल खेलते तो आस पास के टैक्सी ड्राईवर अपना काम छोड़कर दिलीप साहब का खेल देखा करते थे. इतना ही नहीं उन टैक्सी ड्राईवर्स ने दिलीप साहब को एक नया नाम दे दिया. वो नाम था युसूफ़ शाह जी. दिलीप कुमार उन दिनों बॉम्बे मुस्लिम क्लब की तरफ़ से फ़ुटबाल खेला करते थे.
जब दिलीप साहब को करनी पड़ी कैंटीन में नौकरी
अक्टूबर 1942 में दिलीप साहब के पिता लाला गुलाम सरवर को फ़लों के कारोबार में जबर्दस्त घाटा हुआ. ये घाटा इतना जबर्दस्त था की परिवार के सामने अस्तित्व का संकट खड़ा हो गया. इस हालत में दिलीप साहब ने पुणे के एक कैंटीन में एक बेहद छोटी नौकरी कर ली. साथ ही उन्होने पिता के कारोबार भी जारी रखा. पुणे के कैंटीन में करीब सात महीने तक नौकरी करने के बाद दिलीप साहब वापस मुंबई लौट आ गए. ये बात है लगभग अप्रैल 1943 की. दिलीप साहब अब अपने के पिता के फ़लों वाले कारोबार को ही पूरी तरह से खड़ा करना चाहते थे. लेकिन उनके पिता ने उन्हे ऐसा करने से मना कर दिया. दिलीप के पिता ने उन्हे अपने फ़ैमिली फ़्रेंड डॉक्टर मसानी से मिलने के लिए भेजा.
डॉक्टर मसानी से मिलना दिलीप कुमार की जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना
डॉक्टर मसानी से मिलना दिलीप कुमार के जीवन की सबसे महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकी इसी मुलकात के बाद दिलीप कुमार के सुपर स्टार बनने की पूरी स्टोरी लिखी गई.और दर-असल दिलीप कुमार के सुपर स्टार बनने की शुरूआत तो उसी समय हो गई थी जब वो पुणे के कैंटीन में काम करते थे, लेकिन डॉक्टर मसानी से हुई मुलाकात ने उस कहानी को मुकम्मल कर दिया.दिलीप साहब देखने में बेहद स्मार्ट थे. उनका पहवाना, उनकी स्टाइल और उनके बात करने का तौर तरीका किसी भी तरह से किसी स्टार से कम नहीं था. अपनी स्मार्टनेस की वजह से ही वो बड़ी जल्दी ही लोगों की निगाह में आ जाया करते थे. 1942/43 में जब वो पुणे की कैंटीन में काम किया करते थे उसी समय देविका रानी की निगाह उन पर पड़ी. देविका रानी उस समय हिंदी फ़िल्मों की नामी हिरोइन थी.उन्होने उसी समय दिलीप कुमार को हीरो बनने का न्यौता दिया. लेकिन दिलीप साहब ने देविका रानी के प्रस्ताव पर ध्यान नहीं दिया. इसकी एक वजह ये थी कि दिलीप साहब को फ़िल्में पसंद नहीं थी और उन्होने उस समय तक कोई फ़िल्म तक नहीं देखी थी. इतना ही नहीं खुद दिलीप साहब के पिता को फ़िल्मों से बेइंतहा नफ़रत थी. कुछ तो फ़िल्मों से कोई खास लगाव ना होना, और दूसरे फ़िल्मों के प्रति पिता की बेइंतहा नफ़रत की वजह से दिलीप साहब ने देविका रानी का प्रस्ताव ठुकरा दिया. लेकिन उस समय खुद दिलीप कुमार को भी कहां मालूम था कि एक दिन यहीं फ़िल्में उनका मुकद्दर बनेंगी.
जब दिलीप साहब ने एक्टर बनने से इनकार कर दिया था
अपने पिता की सलाह पर जब दिलीप कुमार डॉक्टर मसानी से मिलने पहुंचे. डॉक्टर मसानी को पता था कि दिलीप देखने में तो अच्छे हैं ही साथ ही उन्हे उर्दू भी आती है, इसलिये उन्होने दिलीप कुमार को अपना रिफ़रेंस देकर वापस उसी दहलीज पर भेजा जहां वो जाना नहीं चाहते थे. डॉक्टर मसानी ने उन्हे देविका राने से मिलने की सलाह दी. नामी हिरोइन होने साथ साथ देविका रानी उन दिनों बॉम्बे टाकीज की मैनेजर भी थी.लेकिन दिलीप कुमार ने देविका रानी को एक बार फ़िर से इंकार कर दिया. दिलीप कुमार ने कहा कि वो फ़िल्मों से जुड़ सकते हैं लेकिन एक्टर बन के नहीं बल्कि राइटर बन कर.
देविका रानी ने दिलीप कुमार को बेहद समझाया, लेकिन दिलीप साहब एक्टर बनने के लिए राजी नहीं हुए. आखिर में देविका रानी ने उन्हे एक हजार रूपए हर महीने की तनख्वाह का ऑफ़र दिया. एक हजार रूपए उन दिनों काफ़ी मायने रखते थे.इस तन्ख्वाह की वजह से दिलीप साहब ने फ़िल्मों में एक्टिंग करना मंजूर कर लिया.
जब पृथ्वीराज कपूर ने फोड़ा था दिलीप कुमार का भंडा
लेकिन दिलीप कुमार के एक्टर बनने की राह इतनी आसान नहीं थी, क्योंकि उनके पिता को फ़िल्मों से नफ़रत थी.दिलीप साहब को मालूम था कि उनके पिता उन्हे फ़िल्मों में काम करने की इजाजत कभी नहीं देंगे. इसलिये उन्होने अपने पिता से झूठ बोला. दिलीप साहब ने अपने पिता से बताया कि वो बिस्किट बनाने वाली एक कंपनी में नौकरी करते हैं. पिता से झूठ बोलकर दिलीप कुमार साहब एक बार फ़िर से फ़ंस गए. क्योंकि दिलीप साहब ने जिस कंपनी का नाम लिया उस कंपनी के बिस्किट उनके पिता को बेहद पसंद थे. दिलीप कुमार के पिता ने उन्हे आदेश दिया कि घर आते समय रोज ताजे बिस्किट्स का एक बंडल घर में आते रहना चाहिए. दिलीप साहब के पास इतना वक्त नहीं रहता था कि वो रोज बाजार जाकर बिस्किट के पैकेट खरीद सके. ऐसे समय में दिलीप साहब के एक दोस्त ने उनकी मदद की.दिलीप साहब का वो दोस्त बिस्किट का बंडल खरीद कर रोज उन्हे स्टूडियो पहुंचा देता था. दिलीप साहब उस बंडल की ऐसी पैकिंग कराते मानो वो अभी अभी फ़ैक्ट्री से निकल कर आ रहे हो, इस तरह से थोड़े दिन तक तो दिलीप साहब का झूठ नहीं पकड़ा गया. लेकिन एक दिन उनका भांडा आखिर फूट ही गया. एक दिन पृथ्वी राज कपूर के पिता को पता चला कि दिलीप साहब एक फ़िल्म कर रहे हैं. उन्होने किसी तरह से उस फ़िल्म का पोस्टर पा लिया और ले जाकर दिलीप कुमार के पिता को दिखा दिया. दिलीप कुमार के पिता को जब ये हकीकत पता चली तो वो बेहद नाराज हुए. कई दिनों तक उन्होने अपने बेटे से बात नहीं की, लेकिन आखिर में उन्होने दिलीप कुमार को माफ़ कर दिया.
देविका रानी ने दिलीप कुमार को फ़िल्म ज्वार भाटा में काम दिया था. देविका रानी ने उन्हे अपना युसुफ़ खान से बदल कर दिलीप कुमार रखने की सलाह दी, जिसे दिलीप साहब ने मान लिया. दुनिया ने युसूफ़ खान को दिलीप कुमार के नाम से ही जाना. दिलीप साहब की पहली फ़िल्म ज्वारभाटा 1944 में रिलीज हुई थी. हांलाकि ये फ़िल्म ज्यादा नहीं चल पाई, लेकिन अपने दमदार एक्टिंग के दम पर दिलीप कुमार उस समय के तमाम प्रोड्यूसर्स और डायरेक्टर्स की निगाह में आ गए. लेकिन कामयाबी इतनी जल्दी हासिल नहीं होती. ज्वार भाटा के बाद दिलीप कुमार की दो और फ़िल्में प्रतिमा और मिलन भी ज्याद नहीं चल पाई. लेकिन 1947 में फ़िल्म जुगनू ने दिलीप साहब को सुपर स्टार बना दिया. इस फ़िल्म में नूरजहां के साथ उनकी जोड़ी खूब पसंद की गई. इस फ़िल्म ने दिलीप कुमार को रातों रातों स्टार बना दिया, ऐसा स्टार जिसकी बादशाहत आज तक कायम है.