मन्ना डे की गायकी सिर्फ़ गायकी नहीं थी.. उनकी आवाज़ ऐसी लगती थे मानो गंगा मे लाखों की संख्या में आरती के दिये तैर रहे हो , जैसे गाने के हर बोल हवाओं में घुल कर सीधे दिल में उतर रहे हो. आज मन्ना दा हमारे बीच नहीं हैं लेकिन आज भी जब उनकी आवाज गूंजती हैं तो लगता वो यहीं हैं बस हमारे सामने. ये कशिश थी उनकी आवाज़ थी.
1 मई 1919 को कोलकाता के हेदुआ इलाके में पैदा हुए थे प्रबोध चंद्र डे, जिसे दुनिया ने बाद में मन्ना डे के नाम से जाना. आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि मन्ना डे के पिता उन्हे एक नामी वकील बना चाहते हैं , लेकिन मन्ना डे का जन्म तो एक इतिहास रचने के लिए हुआ था, इसलिए उन्होने संगीत को चुना.कोलकाता के स्कॉटिश कॉलेज में पढ़ाई के साथ-साथ मन्ना डे ने केसी डे से शास्त्रीय संगीत की बारीकियां सीखीं. कॉलेज में संगीत प्रतियोगिता के दौरान मन्ना डे ने लगातार तीन साल तक प्रतियोगिती जीती. चौथे साल भी मन्ना डे ने इस प्रतियोगिता के अपना नाम दिया लेकिन आयोजकों को ने उन्हें चांदी का तानपुरा देकर कहा कि वो आगे से इसमें हिस्सा नहीं लें, और बाकी लोगों को आने दें.

जब मुंबई पहुंचे मन्ना
1942 में 23 साल की उम्र में मन्ना डे अपने अंकल के साथ मुंबई आए और उनके असिस्टेंट बन गए. मन्ना डे के अंकल उन दिनों हिंदी फ़िल्मों के जाने माने संगीतकार थे . इसके बाद मन्ना डे ने उस्ताद अब्दुल रहमान खान और उस्ताद अमन अली खान से क्लासिकल म्यूजिक की बारिकियां सीखीं. और फ़िर सचिन देव बर्मन के सहायक बन गए. मन्ना डे को पहली बार 1943 में अपनी फ़िल्म तमन्ना में गाने का मौका मिला. मन्ना का गया पहला ही गाना हिट हो गया.. और मन्ना ने फ़िर कभी पीछे मुड़ कर नही देखा.हांलांकि वो गाना अब सामान्यतया उपलब्ध नहीं है और अगर कहीं उपलब्ध है भी तो उसकी क्वालिटी अच्छी नहीं.

जब अपनी जोहराजबीं से मिलें मन्ना
1953 में मन्ना की मुलाकात अपनी जोहराजबीं यानि सुलोचना कुमारन से हुई. इसी साल दिसंबर में मन्ना डे ने केरल की रहने वाली सुलोचना कुमार से शादी कर ली.मन्ना डे और सुलोचना कुमारन का साथ करीब 59 साल का रहा . और मन्ना दा जिंदगी भर अपनी पत्नी से उतना ही प्यार करते रहे जितना उन्होने पहली नजर मे किया था
जब क्लास से मास के बीच आए मन्ना
मन्ना डे 1942 से बालीवुड में थे. इस दौरान उन्होने हिन्दी फ़िल्मों के लिए कई गाने गाए. लोगों ने उनके गानों को पसंद भी किया. लेकिन अभी तक वो मासेस के नहीं बल्कि क्लासेस के सिंगर थे. 1953 में आई फ़िल्म दो बीघा जमीन के बाद मन्ना हर आम आदमी के दिल में बस गए. इस फ़िल्म के गाने मौसम बीता जाए को लोगों ने बहुत पसंद किया.इस गाने ने मन्ना को बॉलीवुड मे वो मुकाम दे दिया जिसे आज तक कोई नहीं तोड़ पाया.
जब मन्ना डे ने किशोर कुमार से ‘हारने’ से इनकार कर दिया था
मन्ना डे की आवाज़ में एक अजीब सी उदासी सुनाई देती है. मन्ना डे की आवाज़ की उदासी उनकी सबसे बड़ी पहचान थी,…. जरा याद कीजिए 1961 में आई फ़िल्म काबुल वाला फिल्म के गाने ‘ए मेरे प्यारे वतन’ को. आज भी इस गाने को अगर डूब कर सुन लीजिए तो पलके गीली हो जाएंगी. लेकिन इसका मतलब ये नहीं उन्होने सिर्फ़ उदासी के गाने गाए. मन्ना डे ने भजन से लकर कव्वाली, गजल, रोमांटिक और कॉमेडी सांग तक गाया.मन्ना डे के गाने का क्राइटेरिया कितना बड़ा था, कि उसे चंद लब्जों में समेट पाना मुश्किल है. आपको साल 1968 में आई फ़िल्म का पड़ोसन का गाना ‘एक चतुर नार करके श्रृंगार’ याद होगा. इस गाने में मन्ना के अपोजिट किशोर कुमार को गाना था. पूरा बॉलीवुड मन्ना डे को क्लासिकल म्यूजिक के सम्राट के तौर पर जानता था, जबकि किशोर कुमार का क्लासिकल म्यूजिक से कोई लेना देना नही था. मन्ना को जब मालूम हुआ कि इस गाने के आखिर में उन्हे किशोर कुमार से हारना है तो उन्होने इस गाने को गाने से साफ़ इंकार कर दिया. और बिना मन्ना के ये गाना हो ही नहीं सकता था. मन्ना डे को इस गाने के लिए राजी करने में पूरे एक महीने लग गए. आखिर में जब उन्हे समझाया गया कि गाने को इस तरह से शूट किया जाएगा कि हर कोई समझ जाएगा कि किशोर ने उन्हे धोखे से हराया है जब जाकर मन्ना डे इस गाने के लिए राजी हुए
सलिल चौधरी और मन्ना डे
1953 में दो बीघा जमीन में मन्ना डे के साथ काम करने के बाद सलील चौधरी मन्ना से इतने प्रभावित हुए कि अगले करीब चालीस सालों मतलब 1992 तक उन्होने मन्ना के साथ काम किया.सलील चौधरी के अलावा मन्ना डे की शंकर जयकिशन के साथ भी बेहतरीन ट्यूनिंग थी. शंकर जयकिशन, मन्ना डे और राजकपूर की तिकड़ी बनी थी सन 1951 में आई फ़िल्म आवारा से.और इस तिकड़ी ने ख्याति बटोरी 1954 में आई फ़िल्म बूट पालिश से. इसके बाद ये तिकड़ी श्री चार सौ बीस, चोरी चोरी और मेरा नाम जोकर जैसे कई फ़िल्मों में दिखाई दी..
क्लासिकल के किंग मन्ना डे
जब बात मन्ना डे की चल रही हो तो फिल्म उपकार के गाने ‘कसमे वादे प्यार वफ़ा’ को भला कौन भूल सकता है. मन्ना डे का गाया ये वो गाना था जिसने प्राण को विलेन की कैटगिरी से निकाल कर उन्हे एक चरित्र अभिनेता के तौर पर स्थापित कर दिया.

मन्ना दा से पहले क्लासिकल म्यूजिक पर सिर्फ़ इलिट क्लास का हक था, लेकिन मन्ना दा ने क्लासिकल संगीत को भी इतना आसान बना दिया वो इलीट क्लास से निकल कर आम लोगों के दिल में घर कर गया.राग दरबारी जैसे मुश्किल राग पर आधारित गाना ‘झनक झनक तोरी बाजे पायलिया’ जब मन्ना के गले से निकला तो बेहद आसान बन कर. इतना आसान बन कर वो लोग भी इसे गुनगुनाने लगे जिन्हे क्लासिकल म्यूजिक से दूर दूर का कोई लेना देना नहीं था. इसे आप मन्ना डे की बहुत बड़ी जीत भी मान सकते हैं और उनकी जादूगरी भी.
बॉलीवुड में एक जमाना था जब क्लासिकल फ़िल्मी गानों का दूसरा नाम मन्ना डे हुआ करता था. हर किसी को मालूम था कि फ़िल्म में राग पर आधारित अगर कोई गाना है तो उसे सिर्फ़ और सिर्फ़ मन्ना डे ही गाएंगे. ऐसा नहीं है कि मन्ना डे से पहले हिंदी फ़िल्मों में क्लासिकल गाने नहीं होते थे. मन्ना डे से पहले तक फ़िल्मों के क्लासिकल गाने, सिर्फ़ खास वर्ग के लिए ही होते थे. लेकिन अपनी सधी हुई आवाज़ और सुरों पर अपनी मजबूत पकड़ की वजह से मन्ना डे ने क्लासिकल गानों को आम आदमी की समझ तक पहुंचाया. मसलन फ़िल्म मेरी सूरत तेरी आंखें का राग अहीर भैरव पर आधारित गाना ‘पूछो न कैसे मैने रैन बिताई’ भी हर वो आम दर्शक गुनगुनाता मिला जिसकी क्लासिकल म्यूजिक से दूर दूर तक भी कोई पहचान नही थी. इसी तरह से 1957 में आई फ़िल्म देख कबीरा रोया में राग रागश्री पर आधारित गाने ‘कौन आया मेरे मन के द्वारे’ को भी मन्ना डे ने अपनी सरल आवाज में इस तरग भिगोया कि शास्त्रीय होने के बावजूद ये गाना हर आमो खास की जुबान पर चढ़ गया.इन गानों के अलावा भी मन्ना डे ने फ़िल्मों में ढेर सारे क्लासिकल गाने गए. जैसे ‘आयो कहां से घनश्याम’, ‘छम छम बजे रे पायलिया’, ‘सुर न सधे क्या गाऊं मैं’, ‘फूलगेंदवा ना मारो’ आदि. ये वो गाने हैं जिन्हे आज भी हर उम्र का इंसान गुनगुनाता है. वो गाने जो गाने नही बल्कि खुद मन्ना डे थे
फिल्मी गानों से मन्ना को नहीं था प्यार
मन्ना डे भले ही क्लासिकल गानों के सरताज रहें हो लेकिन हकीकत यही है कि फ़िल्मी गाने उन्हे कभी नही अच्छे लगे. शायद यहीं वजह है कि समय से पहले ही उन्होने बॉलीवुड से रिटायरमेंट ले लिया और मुंबई को अलविदा कह गए. 1992 में सुरों के इस सरताज ने फ़िल्मी दुनिया से ये कहते हुए विदा ले लिया कि अब ना तो पहले जैसा संगीत रहा और नहीं पहले जैसा पिक्चराईजेशन. मुंबई से संन्यास लेने के बाद भी मन्ना डे ने बंगाली फ़िल्मों के गाना जारी रखा. मन्ना डे ने बंगाली, आसामी, पंजाबी, उड़िया, कोंकड़ी, गुजराती और मराठी भाषाओं में करीब पंद्रह सौ गाने गाए. आपको ये जान कर शायद आश्चर्य होगा कि भोजपुरी संगीत भी मन्ना डे की आवाज़ से भीगा था. मन्ना डे ने कई भोजपुरी फ़िल्मों के लिए भी गाने गाए थे.
बहरहाल मुंबई को अलविदा कहने के बाद मन्ना डे कोलकाता नहीं बल्कि अपनी बेटी के घर बैंगलोर चले गए. मन्ना अपनी पत्नी सुलोचना कुमारन से बहुत प्यार करते थे.लेकिन अपनी पत्नी की मौत के बाद वो टूट गए. कैंसर से लंबे समय तक जूझने के बाद मन्ना डे की पत्नी की 18 जनवरी 2012 को मौत हो गई. जिंदगी भर साथ निभाने की कसमें खाने वाली सुलोचना, मंजिल से पहले ही मन्ना को अकेले छोड़ कर चली गई.अपनी पत्नी के मौत के पहले तक मन्ना एक्टिव थे. लाइव शो भी करते थे, मीडिया से बात भी करते थे, लेकिन पत्नी की मौत ने उन्हे अकेले रहने पर मजबूर कर दिया. 2012 में पत्नी की मौत के बाद शायद ही मन्ना को किसी ने कभी कोई पब्लिक पर्फ़ार्मेंस करते हुए देखा होगा. मन्ना डे उम्रदराज़ तो हो ही गए थे, अकेलेपन ने उन्हे बीमार भी कर दिया. जून 2013 में सांस लेने में परेशानी की वजह से मन्ना डे को बैंगलोर के एक अस्पताल में भर्ती कराया गया. यहां पांच महीनों की जद्दोजदह के बाद मन्ना 24 अक्टूबर को सुबह करीब चार बजे जिंदगी की जंग हार गए.
भारत सरकार ने मन्ना डे को 1971 में पद्म श्री, 2005 में पद्म भूषण एवं 2007 में दादासाहेब फाल्के पुरस्कार से सम्मानित किया.मन्ना आज हमारे बीच नहीं हैं .. लेकिन उनकी आवाज़ हमेशा हमारे साथ रहेगी.. कहने की जरूरत नहीं कि, मन्ना , ये देश आपको हमेशा याद करेगा