यहां बिना रावण फूंके 75 दिनो तक मनता है दशहरे का त्योहार

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    नवरात्रि से शुरू होती है रौनक

    नवरात्रि शुरू होने के बाद रथ परिक्रमा शुरू होती है। पहले दिन मिरगान जाति की एक छोटी बच्ची काछन देवी बनती है। उसे कांटे के एक झूले पर बिठाया जाता है। इस परंपरा को काछन गादी कहते हैं। इसके बाद काछन देवी से बस्तर दशहरा मनाने की अनुमति ली जाती है। अनुमति मिलने के बाद ही आगे की परंपराएं निभाई जाती हैं। इस पर्व में जोगी बिठाई की भी एक रस्म होती है, जिसमें देवी की प्रतिमा के सामने जमीन में गड्ढा खोदकर एक जोगी को बैठाया जाता है। नौ दिनों तक वह जोगी उस गड्ढे से उठ नहीं सकता है, इस दौरान वह फल और दूध से बनी चीजें खा सकता है। जोगी बिठाई से पहले देवी को मांगुर प्रजाति की मछली की बलि दी जाती है।

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    रथ होता है खास आकर्षण
    बस्तर दशहरे का खास आकर्षण होता है आदिवासियों द्वारा लकड़ियों से तैयार किया गया भव्य रथ। जिसे फूलों और विशेष तरह के कपड़े से सजाया जाता है। इस रथ को बनाने के लिए आदिवासी पारंपरिक तकनीकों का उपयोग करते हैं। बिना किसी आधुनिक तकनीक की मदद के बना यह रथ बेहद मजबूत होता है। दशहरे में शामिल होने बस्तर क्षेत्र के कोने-कोने से आदिवासी पहुंचते हैं और रथ को खींचते हैं। रथ पर मां दंतेश्वरी का छत्र रखा जाता है, राजशाही के समय में बस्तर के महाराज भी रथ में सवार होते थे। जोगी बिठाई के अगले दिन से ही फूल रथ का चलना शुरू हो जाता है।  दशहरे के दिन भीतर रैनी और एकादशी के दिन बाहर रैनी की रस्म निभाई जाती है।

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