मार्च 2016 में सीवोटर हफपोस्ट ने पंजाब विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी (AAP) की बड़ी जीत का अनुमान जताया था। इसके बाद AAP में भी एक उम्मीद जगी। उसे लगा कि वह जल्द ही राष्ट्रीय पार्टी बन सकती है। इस सर्वे में पंजाब विधानसभा की सभी 117 सीटों में से AAP को 94 से 100 सीटों पर जीत मिलने की संभावना जताई गई थी। इसके बाद चर्चा शुरू हो गई कि पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल दिल्ली विधानसभा चुनाव का अपना ऐतिहासिक प्रदर्शन पंजाब में भी दोहराएंगे।
पंजाब की राजनीति पर करीबी नजर रखने वाले राजनैतिक विश्लेषकों की मानें, तो सच में यहां AAP की संभावनाएं बेहद मजबूत थीं। कुछ गलत फैसलों का नतीज यह हुआ कि पार्टी को केवल 20 सीटों से ही संतोष करना पड़ा है। 2014 के लोकसभा चुनाव के समय AAP को पंजाब में 24.5 फीसद वोट मिले थे और 34 विधानसभा क्षेत्रों में वह आगे थी। इस बार उसके वोटों का प्रतिशत घटकर 23.9 फीसद पर आ गया है।
AAP की सबसे बड़ी भूल शायद यह रही कि विपक्षी दलों द्वारा पंजाब राजनीति में ‘बाहरी’ बताए जाने पर उसने कुछ ज्यादा ही बढ़-चढ़कर प्रतिक्रिया दी। खुद को पंजाब की जमीन से जुड़ा हुआ दिखाने की कोशिश में AAP नेता आगे बढ़कर सिखों को अपनी ओर रिझाने की कोशिश करते नजर आए। उनपर चरमपंथी गुटों के साथ खड़े होने का भी आरोप लगा। कई विश्लेषकों का मानना है कि शहरी हिंदू आबादी के AAP से दूर छिटकने के पीछे यह एक बड़ा कारण बना। 80 के दशक के मध्य से 90 के शुरुआती दौर में जब खालिस्तान चरमपंथ अपने उफान पर था, उस दौर की बुरी यादें आज भी वहां की हिंदू आबादी को सालती हैं।