यूपी चुनावों में बुरी तरह से हारने के बाद 2019 में अपना भविष्य संवारने के लिए मायावती और मुलायम गठबंधन करने को बेकरार से दिख रहे हैं. दोनों का मकसद एक है. दोनों ही किसी भी सूरत में बीजेपी को रास्ते से हटाना चाहते हैं. दोनों ही मोदी के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की लगाम पकड़ कर उसे रोकना चाहते हैं. बिहार और पंजाब का एक जीवंत उदाहरण दोनों के पास है. दोनों जानते हैं कि 2019 में अगर फ़िर से अलग अलग लड़े तो सूबे से सूपड़ा साफ़ होना तय है. इसलिए एक दूसरे की डगमगाती नांव को संभालने के लिए दोनो एक दूसरे की पतवार को बड़ी हसरत के साथ देख रहे हैं.
लेकिन सवाल है कि क्या मायावती गेस्ट हाउस कांड को भूल पाएंगी? क्या बहन जी खुद पर हुए जानलेवा हमले को भूल कर सपा के हाथ मिला पाएंगी ? और हाथ मिला भी लेती हैं तो क्या सुकून से रह पाएंगी. इसके जवाब में भी मायावती बिहार की तरफ़ भी देखती हैं. और वो पूरब की तरह मुंह करती हैं तो उन्हे दिखता है कि राजनीतिक शाख बचाने लिए जब नीतीश और लालू जैसे एक दूसरे के कट्टर विरोधी एक दूसरे के हाथ मिला सकते हैं तो फिर वो मुलायम के साथ हाथ क्यों नहीं मिला नहीं सकती. आखिर दस साल तक सत्ता से बाहर रहने का मतलब मायावती बखूबी समझती हैं. वो जानती हैं कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में खुद को और पार्टी को जीवित रखना है तो 2019 में कुछ कारनामा जरूर दिखाना पड़ेगा. क्योंकि मोदी की वजह से इन दोनों पार्टियों का ना सिर्फ़ जनाधार सरकार है बल्कि इनकी जातिगत समीकरण भी बुरी तरह से चरमरा गई है.
लेकिन सपा और बसपा का गठबंधन सिर्फ़ गठबंधन नहीं होगा, ये इन दोनों के धैर्य, सहिष्णुता और सूझबूझ की अग्निपरीक्षा होगी. ऐसा कहने की कई वजहे भी हैं. पहली वजह तो ये कि अगर सपा बसपा का गठबंधन होता है कि इनका नेता कौन होगा. दोनों ही पार्टियों के मुखिया राजनीतिक रूप से अतिमहात्वाकांक्षी हैं, और लगता नहीं कि कल तक एक दूसरे को खुले मुंह से भला बुरा कहने वाले एक दूसरे की सरपरस्ती में राजनीति कर पाएंगे. दूसरी वजह है कि मायावती और अखिलेश या मुलायाम में से कोई ऐसा नेता नहीं जिसका यूपी से बाहर भी बड़ा जानाधार हो. मायावती तो लोक सभा और विधान सभा दोनों में यूपी से साफ़ हो गई हैं, और सपा की हालत भी कमोबेस ऐसी ही है.
तीसरी वजह है कि मोदी विरोध तो ठीक लेकिन विपक्षी दलों के आपसी समीकरणों का क्या होगा? यूपी में अस्तित्व बचाने के लिए महागठबंधन माया और अखिलेश की मजबूरी हो सकती है लेकिन बंगाल में कांग्रेस,तृणमूल कांग्रेस,लेफ्ट किस हद तक साथ आएंगे? साउथ में क्या डीएमके साथ आएंगे? बिहार में सपा,बसपा,कांग्रेस,आरएलडी क्या साथ आ सकेंगे ? ये वो सवाल हैं जो मोदी लहर के खिलाफ विपक्षी एकजुटता पर सवाल खड़े करते हैं.
सपा बसपा गठबंधन पर सवालिया निशान लगने की चौथी वजह ये है अगर ये गठबंधन होता भी है तो मोदी विरोध के अलावा इस गठबंधन का मोटो क्या होगा. क्या ये महागठजोड़ सिर्फ मोदी फैक्टर के खिलाफ जनता के बीच जाएगा ? ऐसे वक्त में जब बीजेपी हर चुनाव मोदी के चेहरे पर जीत रही है, सिर्फ मोदी की आक्रामक नीति की खिलाफत करके ये गठबंधन कितना वोट पा पाएगा ये बड़ा सवाल है. इसकी वजह भी है. यूपी मे करारी हार के बाद कांग्रेस की अंदरूनी रिपोर्ट में साफ़ साफ़ कहा गया कि पार्टी की हिंदुत्व विरोधी छवि और सिर्फ़ मोदी का विरोध करने के चलते सूबे में शिकस्त खानी पड़ी. इतना ही नहीं, कहा जा रहा है कि खुद राहुल गांधी भी अपनी पार्टी की रणनीतिक सोच बदलने की दिशा में काम कर रहे हैं.ऐसे में सिर्फ़ मोदी का विरोध करके सपा-बसपा का गठबंधन कितनी लंबी और कितनी मजबूत राजनीतिक पारी खेलेगा ये कह पाना मुश्किल लग रहा है.