खुद को शो मैन नहीं मानते थे राजकपूर
चार दशक के फ़िल्मी करियर मे पर्दे पर कई मायावी संसार रचने वाले और इन्ही संसार की बदौलत चार बार बेस्ट डायरेक्टर का फ़िल्म फ़ेयर पुरस्कार जीतने वाले द ग्रेट शो मैन राजकपूर खुद को शो मैन नहीं मानते थे। लेकिन इसके साथ ही वो ये कहना नहीं भूलते थे कि उनकी सोच बड़ी जरूर है। और उनकी ये बड़ी सोच उनकी फ़िल्मों में भी दिखाई देता था। उनकी हर फ़िल्म का कैनवास बड़ा होता था। भले ही वो छोटे बजट की ही फ़िल्म क्यों ना हो। और कैनवास से भी बड़ा होता था, पर्दे पर एक भव्य संसार रचने का उनका जादू-बिल्कुल किसी दूसरी दुनिया के खुदा की तरह। अपनी फ़िल्मों के लिए राजकपूर खुदा ही थे। बड़ी सोच, बड़ा कैनवास और जादूगरी का उनका जज्बा उनकी पहली फ़िल्म से ही जारी था। वो अगर छोटे बजट की फ़िल्म भी बनाते थे तब भी लोकेशन, लाइटिंग, सेट, तकनीक, कहानी, किरदारा और किस्सागोई के लिहाज से उनकी फ़िल्में लॉर्जर देन लाइफ़ हो जाती थी।
1951 में राजकपूर ने जब फ़िल्म ‘आवारा’ कंप्लीट कर ली तो उन्हे लगा कि फ़िल्म में एक ड्रीम सीन (सपने का सीन) भी होना चाहिए। इसलिये उन्होने फ़िल्म में एक गाना डाला जिसका टायटल था ‘तेरे बिना आग ये चांदनी तू आजा’। इस गाने को फ़िल्म की शूटिंग कंप्लीट होने के बाद शूट किया। आपको ये जान कर आश्चर्य होगा कि इस गाने को शूट करने में राजकपूर ने उस जमाने करीब आठ लाख रूपए अधिक खर्च किए थे । दर-असल राजकपूर के पास फ़िल्म में ये गाना जोड़ने की दार्शनिक वजह थी। वो मिलन के लिए नायक और नाईका की तड़प दिखाना चाहते थे। इसके साथ ही सेट पर दिखाए गए धुएं के माध्यम से उन्होने ने नायक और नाइका के मिलने और जुदा होने की भी पूरी कहानी कहने के कोशिश की। धुएं में गुम होती नाईका और ईश्वर की मूर्ति के पास जाते ही नायक नाइका का गुम हो जाना इस फ़िल्म के लिए एक प्रतीकात्मक क्रियावाद – एक सिम्बोलिक इंट्रैक्सनिज्म- की निशानी थी
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