डेरा सच्चा सौदा द्वारा अकाली दल को समर्थन दिए जाने का भी AAP पर काफी असर पड़ा। डेरा के अनुयायियों में बड़ी संख्या दलितों की है। पंजाब के दलित वर्ग में AAP की मजबूत पकड़ मानी जा रही थी। 2016 की शुरुआत में जब AAP ने लगभग सभी विधानसभा क्षेत्रों में गैर-पंजाबी पर्यवेक्षकों को नियुक्त किया, तब उनपर पंजाब में बाहरी होने का आरोप लगना शुरू हुआ। जुलाई 2016 में पार्टी ने अपने सबसे मजबूत सिख चेहरों में से एक सुचा सिंह छोटेपुर को बाहर निकाल दिया। एक विवादित स्टिंग ऑपरेशन में सुचा सिंह को कथित तौर पर रिश्वत लेते हुए दिखाया गया था। सुचा सिंह को पार्टी से निकालना भी AAP को भारी पड़ा। उन्हें निकालने के कारण कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ने लगा।
फिर अगस्त 2016 में AAP ने युवाओं के लिए अपना चुनावी घोषणापत्र जारी किया। इसमें कवर पेज पर स्वर्ण मंदिर के साथ पार्टी का चुनाव निशान झाड़ू भी दिखाया गया था। पार्टी के प्रवक्ता ने तो इस घोषणापत्र की तुलना गुरु ग्रंथ साहिब से भी कर डाली। ये सब हालांकि सिखों को रिझाने के मकसद से किया गया था, लेकिन हुआ इसका उल्टा ही। स्थिति तब और बिगड़ गई, जब लोकसभा चुनाव में पंजाब से जीते AAP के चार विधायकों में से केवल एक- भगवंत मान ही सक्रियता से चुनाव प्रचार करते दिखे। पटियाला से जीते धर्मवीर गांधी और फतेहगढ़ साहिब से जीते एच एस खालसा को पार्टी से बाहर निकाल दिया गया। फरीदकोट से पार्टी के सांसद प्रफेसर साधू सिंह चुनाव प्रचार से गायब रहे।
इन सबके अलावा AAP को मुख्यमंत्री उम्मीदवार के चेहरे बिना चुनाव लड़ने का भी खामियाजा उठाना पड़ा। पार्टी ने कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुकाबले अरविंद केजरीवाल के चेहरे पर ही भरोसा जताया और यह पूरा मुकाबला नेताओं के राजनैतिक व्यक्तित्व से जुड़ गया। इस लड़ाई में कैप्टन को बढ़त हासिल हुई। पार्टी के बागी सांसद एच एस खालसा कहते हैं, ‘केजरीवाल के इर्द-गिर्द बनी आभा गायब हो गई और कैप्टन अमरिंदर सिंह ने उनकी कथनी और करनी के बीच के फर्क की पोल खोल दी।’































































