आरटीई एक्ट के दायरे में नहीं आएंगे अल्पसंख्यक संस्थान: बॉम्बे हाईकोर्ट

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आरटीई एक्ट

केंद्र सरकार ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम – आरटीई एक्ट – इसलिए बनाया था कि हर बच्चे को प्राथमिक शिक्षा मिले, चाहे वह किसी भी सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से हो। हालांकि कई शैक्षिक संस्थाओं को आरटीई एक्ट में कमियों के कारण समाज के कमजोर वर्ग के छात्रों को भर्ती नहीं करने का बहाना मिल गया। अब बॉम्बे हाईकोर्ट ने आदेश जारी किया है कि अल्पसंख्यक दर्जे वाली शैक्षिक संस्थाओं पर आरटीई एक्ट लागू नहीं होगा। कारण, अल्पसंख्यक संस्थानों के अधिकारों की हिफाजत संविधान करता है।

आदेश मुख्य न्यायाधीश मंजुला चेल्लूर और न्यायाधीश एमएस सोनक की खंडपीठ ने जारी किया है। खंडपीठ ने कहा कि अब इस आरटीई एक्ट के तहत किसी भी स्टूडेंट को भर्ती करने के लिए अल्पसंख्यक संस्थाओं पर दबाव नहीं डाला जा सकता।

क्या है विवाद
यह आदेश डॉ. विकास मोतेवर की दायर याचिका का नतीजा है। मोतेवर ने अपनी याचिका में मुंबई स्थित कांदिवली की लोखंडवाला फाउंडेशन स्कूल के फैसले को चुनौती दी थी। स्कूल ने उनकी बेटी को सात महीने के ब्रेक के बाद फिर से भर्ती करने से इनकार कर दिया था। मोतेवर को कुछ घरेलू समस्याओं के चलते जाना पड़ा था। सात महीने के इस समय में मोतेवर की बेटी स्कूल नहीं जा सकी, जबकि वह यहां नर्सरी से पांचवीं तक पढ़ी थी।
आरटीई एक्ट यह कहता है कि अगर स्टूडेंट को स्कूल में एक बार प्रवेश दे दिया गया है, तो उसे प्रारंभिक शिक्षा पूरी होने तक ना तो निकाला जा सकता है और ना ही फेल किया जा सकता है। इसलिए मोतेवर ने राज्य सरकार की मदद लेनी चाही ताकि उनकी बेटी को स्कूल में फिर से प्रवेश मिल सके।

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शिक्षा अधिकारी के हस्तक्षेप से स्कूल ने उनकी बेटी को पांचवीं की परीक्षा देने की अनुमति दे दी, पर छठी में प्रमोट नहीं किया। कोर्ट की सुनवाई के दौरान, स्कूल प्रबंधकों ने कहा कि वे आरटीई एक्ट मानने के लिए बाध्य नहीं हैं क्योंकि यह अल्पसंख्यकों की संस्थान है। तब कोर्ट ने आदेश दिया कि राज्य, स्टैंडर्ड बनाए रखने के लिए अल्पसंख्यक संस्थानों पर दबाव नहीं डाल सकता।

अगले पेज पर पढ़िए – क्या होगा इस फैसले का असर
इस आदेश का सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े स्टूडेंट्स का नुकसान होगा। खासतौर से मुंबई में, जहां काफी शैक्षिक संस्थाओं को धार्मिक या भाषाई अल्पसंख्यक दर्जा मिला हुआ है। शिक्षा विशेषज्ञ और आरटीई एक्टिविस्टों ने चिंता व्यक्त की है कि इससे गरीब स्टूडेंट्स का भविष्य बाधित होगा। एक्टिविस्ट हेरांब कुलकर्णी ने कहा, ‘एक्ट लागू होने के बाद, समाज के कमजोर वर्ग के स्टूडेंट्स कम से कम प्रारंभिक शिक्षा तो ले ही सकते थे, जिसके बारे में अब उनके पैरेट्स सोच भी नहीं सकते।अब यदि अल्पसंख्यक संस्थान भी उन्हें भर्ती करने से इनकार करना शुरू कर देते हैं, तो उनके पास कोई चारा नहीं रहेगा।’
कुलकर्णी ने आगे कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान अपना प्रशासन चलाने के लिए स्वतंत्र नहीं है, उन्हें प्रबंधन समिति की मर्जी पर रहना पड़ता है। ‘हो सकता है, अल्पसंख्यक संस्थान धार्मिक शिक्षा के संस्थान बन जाएं। उस स्थिति में, वे शिक्षा बोर्ड द्वारा तय पाठ्यक्रम और गरीब स्टूडेंट्स को भर्ती करने से इनकार कर सकते हैं। इससे इन स्टूडेंट्स के भविष्य पर बुरा असर पड़ेगा।’ उन्होंने यह भी कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान एक बार आरटीई की परिधि से बाहर हो गए, तो सरकारी अधिकारी भी उनकी उपेक्षा करेंगे।
समान शिक्षण मूलभूत अधिकार समिति के श्याम सोनार ने कहा कि सरकार ने एक्ट को प्रभावी ढंग से लागू करने में उदासीनता बरती थी और यही सारी समस्याओं की जड़ है। सोनार ने कहा, ‘एक्ट में कुछ आधारभूत कमियां हैं। कमियों को दूर करने के लिए केंद्र सरकार को एक्ट में संशोधन करने पड़ेंगे और वांछित प्रभाव सुनिश्चित करने पड़ेंगे। पर ना तो पहले वाली और ना ही यह सरकार बदलाव करना चाहती है।’

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उनके मुताबिक, 2002 में 86 वें संवैधानिक संशोधन से शिक्षा को मूल अधिकार बनाया गया था। पर यह संशोधन कक्षा आठ तक निशुल्क शिक्षा के लिए था। सोनार ने आगे कहा, ‘सही मायने में यह केजी से पीजी तक होना चाहिए था। यह सरकार की जिम्मेदारी है। गलत ढंग से लागू संशोधन ने 30 हजार करोड़ स्टूडेंट्स को शिक्षा से वंचित कर दिया। दिलचस्प यह है कि आरटीई एक्ट में प्राइवेट संस्थानों में निशुल्क शिक्षा का प्रावधान नहीं है। इसकी वजह से यह गरीब स्टूडेंट्स के लिए अनुपयोगी है क्योंकि उनके पैरेंट्स को उनकी शिक्षा पर लगभग 20 हजार रुपए का वार्षिक खर्च वहन करना पड़ता है।’

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