खांटी राजनीति – उत्तराखंड में उत्तराखंड के रावत को कैसे मात देंगे मोदी ?

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उत्तराखंड

नई दिल्ली: बचपन से कहावत सुनी है। आपने भी सुनी होगी। पानी में रहकर मगर को नहीं हराया जा सकता। राजनीतिक सोच को जरा विस्तार देकर देखें तो उत्तराखंड की राजनीति कुछ ऐसी ही है। हरीश रावत पहाड़ों के आदमी हैं। और कोई मामूली नेता भी नहीं हैं। ऐसे नेता है जिन्हे उत्तराखंड के चप्पे चप्पे की जानकारी है। हर चौराहे पर लोगों से घुल मिल जाने की अचूक शक्ति है उनके पास। ऐसे रावत को पहाड़ों में हरा पाना मोदी के लिए मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी लग रहा है। रावत से टकराने से पहले मोदी को ये भी तो जरूर याद होगा कि जिस मुरली मनोहर का दामन पकड़कर वो राष्ट्रीय राजनीति की फलक पर आए थे, उन्ही मुरली मनोहर को हरा कर रावत ने अपना करियर शुरू किया था। मतलब मोदी के ‘गुरू’ को हराकर रावत ने रजनीति का ककहरा सीखा।

सवाल है कि अब मोदी की राजनीतिक सोच क्या कहती होगी? लेकिन इस सवाल का जवाब जानने से पहले कुछ और भी जान लीजिए। जरा जान लीजिए कि कि मोदी ने उत्तराखंड को जिद क्यों बना लिया है? रावत को हराने को मोदी ने अपने आत्मसम्मान का विषय क्यों मान लिया है? वजह साफ़ है। फ़्लैश बैक में चलें तो आपको उत्तराखंड की फ़िल्म में राष्ट्रपति शासन का भी एक सीन दिखाई देगा। कांग्रेस के लिए वो सीन चटकदार इस्टमैन कलर में है, जबकी बीजेपी के लिए वो फ़्लैशबैक ब्लैक एंड व्हाइट में है। राष्ट्रपति शासन लगने के बाद जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी और उनके सिपहसालार हरीश रावत से गच्चा खाकर उनकी सरकार को फिर से बनते हुए देखने को मजबूर हुए, उसके बाद उत्तराखंड को लेकर मोदी का बर्ताव कुछ वैसा ही है जो दूध के जले का होता है। मोदी अब जान गए हैं कि हरीश रावत को घेरना खण्डूरी और कोशियारी जैसे उम्रदराज़ नेताओं के बूते की बात नहीं है। रावत को पछाड़ने का बूता मोदी को अजय भट्ट या अनिल बलूनी जैसे ठेठ बीजेपी नेताओं में भी नही दिखता है।

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उत्तराखण्ड में जिस तरह राष्ट्रपति शासन लगाया और हटाया गया, उस पराजय को मोदी किसी राजनाथ, विजयवर्गीय या श्यामजाजू की मात नहीं मानते है । राष्ट्रपति शासन के घालमेल को वो अपने सम्मान से जोड़कर देखते हैं। सूत्रों की माने तो मोदी पहले से राष्ट्रपति शासन को लेकर सशंकित थे, लेकिन जिस तरह पार्टी के कुछ नेताओं ने प्रधानमंत्री को भरोसा दिलाया कि सब कुछ आसानी से निपट जाएगा, उस आश्वासन के चलते मोदी ने उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने को मंज़ूरी दे दी थी। लेकिन जब राष्ट्रपति शासन लगाने की रणनीति चारों खाने चित्त हुई तो मोदी को लगा कि उनकी छवि पर अकारण एक दाग़ लग गया है। लिहाज़ा हरीश रावत को घेरने के लिए मोदी ने खुद अपनी जेब से एक पत्ता निकाला और उस पत्ते को मोदी ने अपने मंत्रीमंडल में सजा लिया। तुरूप के उस पत्ते का नाम है अजय टम्टा। मनोहर पर्रिकर और सोनवाल की तरह टम्टा पर भी मोदी की बहुत पहले से निगाह थी। उसी टम्टा को गले से लगाकर और मंत्री पद देकर मोदी ने न सिर्फ उत्तराखण्ड के बीजेपी दफ़्तर में खलबली मचा दी, बल्कि दिल्ली के कई चाणक्यों को भी चौंका दिया। लेकिन मोदी ने टम्टा को उत्तराखंड का ‘सोनोवाल’ मान लिया है। मतलब मोदी टम्टा के साथ भी वहीं करने वाले हैं जो उन्होने सोनोवाल के साथ किया। पहले मंत्री पद दिया, और फिर आसाम का मुख्यमंत्री बना दिया। बीजेपी के अंदरूनी सूत्रों की माने तो बीजेपी अगर उत्तराखंड का चुनाव जीतती है तो टम्टा ही सीएम बनेंगे।

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लेकिन ये तो ‘अगर’ और ‘तो’ वाली बात हो गई। इस ‘अगर’ और ‘तो’ में मोदी की सबसे बड़ी मुश्किल हैं रावत। चालीस सालों से सियासत करते रहे रावत उत्तराखंड की मिट्टी में रच बस से गए हैं। वहां की मिट्टी में रावत की नींव इतनी गहरी है दीवार को गिरा पाना मुश्किल लग रह है। जाहिर है कि इस चुनाव में देवभूमि रणभूमी में तब्दील होने जा रहा है। इस रण में रावत का चालीस साल का तजुर्बा जीतता है या टम्टा और मोदी की रणनीति ये जानने के लिए आपको पूरी फ़िल्म रिलीज होने का इंतजार करना होगा। ये तो बस ट्रेलर था। पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त।

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