बिहार के बच्चों पर मंडरा रहा है निमोनिया और डायरिया का खतरा, बड़ी बड़ी योजनाएं भी फेल

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इस संस्था द्वारा किए गए कार्यों के मूल्यांकन के दौरान यह बात भी सामने आई है कि ग्रामीण बिहार के अभिभावक केवल स्थानीय रूप से अनुपलब्ध सेवाओं के लिए भुगतान करते हैं और दूसरी ओर वे अयोग्य चिकित्सकों के पास चले जाते हैं जो शायद डायरिया और निमोनिया के खतरे को पहचान नहीं पाते। यहां हम बताते चलें कि बिहार देश के कुछ एक राज्यों में से एक है, जहां स्वास्थ्य सेवाओं की हालत सबसे बद्तर देखे गए हैं, जैसा कि इंडियास्पेंड ने अगस्त 2015 में विस्तार से बताया है।

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शुक्ला ने ई-मेल के जरिए इंडियास्पेंड को बताया, “हमारी तरह ही नए स्वास्थ्य जगत के तकनीकी संसाधनों और उसके समुचित इस्तेमाल के लिए विकसित प्रणालियो का इस्तेमाल कर ग्रामीणों की देखभाल की इच्छा रखने वाले लोगों के लिए बड़े निष्कर्ष यह हैं कि दस्त और निमोनिया जैसे सरल उपचारात्मक सेवाओं के लिए ग्रामीण समुदाय स्थानीय स्तर मिलने वाली चिकित्सा सुविधाओं से खुश हैं। वे ज्यादा पैसे दे कर शहर के डॉक्टरों के पास नहीं जाना चाहते। लेकिन कुछ अन्य सेवाएं जो उन्हें स्थानीय स्तर पर नहीं मिल पातीं, उनके लिए वे अधिक पैसे खर्च करने को तैयार रहते हैं।

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डायरिया और निमोनिया कोई ऐसी बीमारी नहीं है जिसका इलाज ना हो सके, इसका इलाज भी किया जा सकता है और रोका भी जा सकता है। लेकिन 2015 में भारत के पांच वर्ष से कम उम्र के 30,000 बच्चों की मौत इन बीमारियों की वजह से ही हुई है।

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अगली स्लाइड में देखें निमोनिया और डायरिया से पीड़ित बिहार के बच्चों  पर एक रिपोर्ट

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