इतिहास में पहली बार ऐसा दृश्य देखने को मिला है, जो देश की एकता और अखंडता की बड़ी मिसाल बन गया है। धार्मिक नगरी काशी में वैदिक मंत्रों के बीच सदियों पुरानी परम्परा उस वक्त टूट गई जब 100 से ज्यादा किन्नरों ने अपने पूर्वजों के लिए पिंडदान कर उनका श्राद्ध किया। अब तक किन्नरों को समाज के इन रिति-रिवाजों से अछूता रखा जाता था। छोटी उम्र में अपना घर बार छोड़ने के बाद ये किन्नर एक अलग समाज और अपनी मंडली के दायरे में सिमटकर रह जाते थे। इसना ना अपने घर से कोई मतलब रहता था और ना ही सामाजिक क्रियाओं से। जबकि हकीकत तो ये है कि पूर्वज तो इनके भी थे और उनके वंशज होने के नाते इन्हें भी उनके लिए कुछ कर्म-कांड करने का अधिकार होना चाहिए।
नवभारत टाइम्स की खबर के मुताबिक पहली बार पितृपक्ष की नवमी तिथि पर पिशाचमोचन कुंड पर किन्नरों ने अपने पितरों का याद करते हुए त्रिपिंडी श्राद्ध किया। इस श्राद्ध को करने के लिए किन्नर अखाड़ा के महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी के साथ सौ से ज्यादा किन्नर जुटे थे।
आपको बता दें कि आदिकाल से चली आ रही परंपरा ने किन्नरों के सम्मानपूर्वक जीने पर ही नहीं बल्कि मरने पर भी प्रतिबंध लगा रखा है। हिंदू धर्म में जन्म लेने के बावजूद किन्नरों का शवदाह नहीं होता। उन्हें दफनाया जाता है और हिंदू परंपरा के अनुसार उनका तर्पण भी नहीं किया जाता। किन्नर अखाड़े के महामंडलेश्वर लक्ष्मीनारायण ने इस परंपरा को तोड़ने की पहल की। इसके लिए देशभर के किन्नर समुदाय के प्रतिनिधियों के साथ वह, त्रिपिंडी श्राद्ध करने काशी पहुंचे।
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